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रोहिंग्या समस्या और भारत के संदर्भ मे.

अंतर्राष्ट्रीय संबंध
जनवरी 2019 में संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (UN High Commissioner for Refugees-UNHCR) ने भारत से उन रोहिंग्या शरणार्थियों के उस समूह के बारे में जानकारी मांगी, जिन्हें अक्तूबर 2018 में म्यांमार में निर्वासित कर दिया गया था। माना गया कि शरणार्थियों का भारत से प्रत्यावर्तन (किसी को वापस उसके देश भेजना) शरणार्थी कानून पर अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांतों का उल्लंघन तो था ही, साथ ही इसे उन घरेलू संवैधानिक अधिकारों के तहत भी उचित नहीं माना गया जहाँ शरणार्थियों के निर्वासन को कानूनी और नैतिक रूप से समस्याग्रस्त माना जाता है। रोहिंग्याओं को दुनिया के सबसे सताए हुए समुदायों में से एक माना जाता है। लगभग 11 लाख रोहिंग्या म्यांमार में रहते हैं दशकों से ये प्रमुखतः रखाइन प्रांत में बौद्धों के साथ असहज तौर पर सह-अस्तित्व में रहते आ रहे हैं। म्यांमार में बहुत से लोग रोहिंग्याओं को अवैध आप्रवासियों के रूप में देखते हैं, जहाँ उनके साथ व्यवस्थित तरीके से भेदभाव किया जाता है। म्यांमार सरकार रोहिंग्याओं को राज्यविहीन मानती है और उन्हें देश की नागरिकता देने से इनकार करती है। म्यांमार में रोहिंग्याओं को आवागमन की स्वतंत्रता, चिकित्सा सुविधाओं तक उनकी पहुँच पर कड़े प्रतिबंध लगाए गए हैं। रोहिंग्याओं के लिये म्यांमार में रहते हुए शिक्षा तथा अन्य मूलभूत सुविधाओं के बारे में सोचना भी दिन में तारे देखने के समान है। म्यांमार के उत्तर में स्थित रखाइन प्रांत में जब-जब रोहिंग्या अतिवादी सरकारी बलों का प्रतिरोध करते हैं या उन पर हमला करते हैं तो वहाँ हिंसा भड़क उठती है। इसके जवाब में बौद्धों द्वारा समर्थित सुरक्षा बल रोहिंग्याओं के सफाए का अभियान चलाते हैं। इन अभियानों में अब तक कम-से-कम 1000 लोग मारे जा चुके हैं और तीन लाख से अधिक लोग अपने घरों से बेदखल होकर देश छोड़कर भागने के लिये मजबूर हो गए।
भारत के गृह मंत्रालय के अनुसार, भारत में लगभग 40,000 रोहिंग्या रहते हैं, जो पिछले कई वर्षों में भूमि मार्ग के रास्ते बांग्लादेश से भारत पहुँचे हैं।
ग्लोबल फ्रेमवर्क
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून का एक हिस्सा है शरणार्थी कानून। एक देश से दूसरे देश में बड़े पैमाने पर शरणार्थियों के आने की समस्या का समाधान करने के लिये संयुक्त राष्ट्र के प्लेनिपोटेंटियरीज (Plenipotentiaries) सम्मेलन ने 1951 में शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित अभिसमय (Convention) को अपनाया। इसे संयुक्त राष्ट्र अभिसमय, 1951 या शरणार्थी अभिसमय कहा जाता है। इसके बाद 1967 में शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित प्रोटोकॉल अस्तित्व में आया। शरणार्थियों की वापसी नहीं होना या करना इस प्रोटोकॉल की एक प्रमुख विशेषता है। इसमें यह नियम है कि प्रोटोकॉल से जुड़ा कोई भी देश या पक्ष किसी भी प्रकार से शरणार्थी को निष्कासित या वापस नहीं करेगा। चाहे वह किसी भी देश या क्षेत्र से आया हो क्योंकि सीमाओं का इसमें कोई महत्त्व नहीं माना गया है। इसके तहत उस क्षेत्र से आने वाले व्यक्ति को शरणार्थी माना गया है, जहाँ उसके जीवन या स्वतंत्रता को उसकी जाति, धर्म, राष्ट्रीयता, किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता या राजनीतिक राय के आधार पर खतरा हो सकता है।
अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि यह नियम भारत पर लागू नहीं होता क्योंकि न तो वह 1951 के अभिसमय और न ही प्रोटोकॉल से जुड़ा है। लेकिन शरणार्थियों को वापस न भेजना अंतर्राष्ट्रीय कानून का एक मानक है, जो इस अभिसमय और प्रोटोकॉल से न जुड़े हुए देशों और पक्षों को भी इसे मानने के लिये बाध्य करता है।
Extraterritorial Application of Non-Refoulement Obligations, UNHCR, 2007 के अनुसार यह नियम उन सभी पक्षों और राज्यों के लिये बाध्यकारी है, जो 1951 के अभिसमय और/या इसके 1967 के प्रोटोकॉल में शामिल नहीं हैं।
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (Universal Declaration of Human Rights) के आर्टिकल 14 में यह प्रावधान है कि उत्पीड़न से बचने के लिये किसी भी व्यक्ति को अन्य देशों में शरण लेने का अधिकार है।
इसके अलावा, संविधान का अनुच्छेद 51 अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने की ज़िम्मेदारी राज्य की मानता है। अनुच्छेद 51(c) अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और संधियों से जुड़े दायित्वों को प्रोत्साहन देने की बात करता है। इसके मद्देनज़र यह कहा जा सकता है कि संविधान घरेलू कानून में अंतर्राष्ट्रीय कानून को शामिल करने की परिकल्पना करता है।

घरेलू ज़िम्मेदारियाँ
हमारे देश के संविधान में मौलिक अधिकारों का अध्याय नागरिकों और व्यक्तियों में अंतर करता है। देश के नागरिकों को जहाँ सभी अधिकार उपलब्ध हैं, वहीं विदेशी नागरिकों सहित अन्य लोगों को समानता का अधिकार और जीवन का अधिकार तथा अन्य अधिकार मिले हुए हैं। ऐसे में केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र के तहत रोहिंग्या शरणार्थियों को जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य के मामले में 1996 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी थी कि हमारे संविधान में सभी लोगों को अधिकार दिये गए है तथा देश के नागरिकों को इनके साथ ही कुछ अन्य अधिकार भी दिये गए हैं। कानून में हर व्यक्ति को समानता मिली हुई है और कानूनों के तहत समान संरक्षण का हक भी मिला हुआ है। साथ ही, किसी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता। ऐसे में प्रत्येक मनुष्य के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करना राज्य के लिये बाध्यकारी है, फिर चाहे वह एक नागरिक हो या कोई और।
भारत की स्थिति
  शरणार्थियों की लगातार बढ़ती समस्या के बावजूद भारत में शरणार्थियों की समस्या के समाधान के लिये कोई विशेष कानून नहीं है। विदेशियों विषयक अधिनियम, 1946 एक वर्ग (Class) के रूप में शरणार्थियों द्वारा पेश की जाने वाली अजीबो-गरीब समस्याओं का समाधान करने में सक्षम नहीं है। किसी भी विदेशी नागरिक को निर्वासित करने के लिये यह केंद्र सरकार को बेलगाम शक्ति भी देता है। इसके अलावा, नागरिकता (संशोधन) विधेयक 2019 के दायरे से मुसलमानों को बाहर रखा गया है और इसमें केवल उन हिंदू, ईसाई, जैन, पारसी, सिख और बौद्ध शरणार्थियों को ही नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है, जो बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से प्रताड़ित होकर आए हैं, जबकि म्यांमार से आने वाले रोहिंग्याओं में अधिकांश मुस्लिम हैं। धर्म के आधार पर यह विभेद संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता की कसौटी पर खरा नहीं उतरता और धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन करता है ,जो कि संविधान की मूलभूत विशेषता है।
क्या किया जा सकता है?
भारतीय न्यायपालिका में कार्यपालिका और विधायिका का कोई हस्तक्षेप नहीं है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय ने मानवाधिकार को भारतीय राजव्यवस्था के केंद्र में रखा है और इसे विभिन्न समुदायों के बीच निष्पक्षता का एक साधन बनाने का प्रयास किया है। साथ ही व्यक्तिगत तौर पर दीवानी (Civil) और आपराधिक न्याय प्रक्रिया के माध्यम से सुरक्षा की गारंटी भी देता है। ये सभी भारतीय राज्य और समाज की पहचान को मज़बूती प्रदान करते हैं। रोहिंग्याओं की दयनीय दशा के मद्देनज़र उन्हें साफ-सफाई, पेयजल और चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिये और इसके बाद ही धीरे-धीरे उनके निर्वासन की व्यवस्था की जानी चाहिये। किसी भी मेज़बान देश को उन्हें फिर से उसी प्रताड़ना भरे दलदल में फेंकने के बजाय आने वाली कठिनाइयों से उन्हें बचाने का प्रयास करना चाहिये। जीवन का अधिकार किसी भी व्यक्ति के लिये एक प्राथमिकता है और उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। बेशक, भारत ने देश में किसी को भी शरणार्थी का दर्जा देने वाले अंतर्राष्ट्रीय अभिसमय की पुष्टि या अनुमोदन नहीं किया है, फिर भी भारत ने रोहिंग्याओं की समस्या के मद्देनज़र वर्तमान संदर्भ में कई प्रयास किये हैं।  भारत ने हाल ही में म्यांमार के रखाइन प्रांत में रोहिंग्या शरणार्थियों के लिये 250 मकान बनाए हैं, जिसमें वे भारत से वापस जाने पर रह सकेंगे। रोहिंग्याओं की समस्या को लेकर भारत का अब तक का रवैया शरणार्थियों पर उसकी पारंपरिक स्थिति के विपरीत माना गया है। अभी भी बहुत कुछ ऐसा है जो भारत दीर्घकालिक समाधानों के माध्यम से रोहिंग्याओं का जीवन कुछ सुविधाजनक बनाने के लिये कर सकता है। ये प्रयास ही क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर भारत की स्थिति के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। भारत वैश्विक आकांक्षाओं के साथ एक उभरती शक्ति है और शरणार्थियों की समस्या का पहले भी कई बार सामना कर चुका है। ऐसे में उसे पक्षपातरहित नज़रिया अपनाने की ज़रूरत है। अंत में यही कहा जा सकता है कि भारत शरणार्थियों सहित विश्व को प्रभावित करने वाले अन्य उभरते मुद्दों पर क्षेत्रीय और वैश्विक प्रयासों को आकार देने के लिये बेहतर स्थिति में हो सकता है। रोहिंग्या शरणार्थियों ने केवल भारत ही नहीं बल्कि म्यांमार में भी शरण ली हुई है। हॉलीवुड की प्रख्यात अभिनेत्री एंजेलिना जोली संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग की विशेष दूत हैं। रोहिंग्याओं का हाल-चाल जानने के लिये वे 5 फरवरी को बांग्लादेश के कॉक्स बाज़ार में कतुपालोग शरणार्थी शिविर में पहुँचीं। शरणार्थियों की दयनीय दशा को देखते हुए उन्होंने म्यांमार से इस समस्या को सुलझाने के लिये कहा। आपको बता दें कि प्रताड़ना से बचने के लिये म्यांमार के रखाइन प्रांत से भागकर 7 लाख रोहिंग्याओं ने बांग्लादेश में शरण ले रखी है। 2017 में रखाइन प्रांत में सैन्य कार्रर्वाई के बाद रोहिंग्याओं को वहां से पलायन करना पड़ा था।

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