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भारत में संवैधानिक विकास

                                                     1773 का रेगुलेटिंग एक्ट
1773 ई. का रेग्यूलेटिंग ऐक्ट भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों को नियमित और नियंत्रित करने की दिशा में ब्रिटिश सरकार द्वारा उठाया गया यह पहला कदम था |अर्थात कंपनी के शासन पर संसदीय नियंत्रण स्थापित किया गया |इस एक् के द्वारा पहली बार कंपनी के राजनैतिक और प्रशासनिक कार्यों को मान्यता मिली |इसके द्वारा केंद्रीय प्रशासन की नींव रखी गई।
इस एक्ट की विशेषताएं -
इस एक्ट के माध्यम स बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स के सदस्यों की संख्या 24 निश्चित कर दी गई जिनका निर्वाचन
मालिक मंडल से होना था बोर्ड आफ डायरेक्टर्स का यह सदन स्थाई सदन था जिसमें से 1 बटा 4 यानी कि 6 सदस्य प्रत्येक वर्ष सेवानिवृत्त हो जाते थे।
बोर्ड आफ डायरेक्टर्स को यह आदेश दिया गया कि भारत संबंधित समस्त प्रशासनिक एवं आर्थिक दस्तावेजों को संसद के पटल पर प्रस्तुत करना अनिवार्य होगा। 
कंपनी के कर्मचारियों के निजी व्यापार तथा इनाम लेने को पूरी तरीके से प्रतिबंधित कर दिया गया। कंपनी के कर्मचारियों में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए अधिनियम के अन्तर्गत कलकत्ता में 1774 में एक उच्चतम न्यायालय की स्थापना की गई,जिसमे मुख्य न्यायाधीश एलिसा इम्पे और तीन अन्य न्यायाधीश थे| 1937 में यही हाइकोर्ट कलकत्ता से दिल्ली स्थान्तरित किया गया।
इस अधिनियम द्वारा बंगाल के गवर्नर को बंगाल का गवर्नर जनरल हो गया एवं उसकी सहायता के लिए एक चार सदस्यीय कार्यकारी परिषद का गठन किया गया | बंगाल के पहले गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स बने |इसके द्वारा बम्बई एवं मद्रास के गवर्नर बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन हो गए || 
                                  1784 ई. का पिट्स इंडिया एक्ट
रेग्यूलेटिंग एक्ट के दोषों को दूर करने के लिये इस एक्ट को पारित किया गया। 
इस एक्ट के प्रमुख उपबंध निम्नानुसार थे
इसने कंपनी के 'राजनैतिक और वाणिज्यिक कार्यों को पृथक पृथक कर दिया | 
इसने निदेशक मंडल को कंपनी के व्यापारिक मामलों की अनुमति तो दी लेकिन राजनैतिक मामलों के प्रबंधन के लिए नियंत्रण बोर्ड (बोर्ड ऑफ़ कण्ट्रोल )नाम से एक नए निकाय का गठन किया गया नियंत्रण बोर्ड को यह शक्ति थी की वह ब्रिटिश नियंत्रित भारत में सभी नागरिक, सैन्य सरकार व राजस्व गतिविधियों का अधीक्षण व नियंत्रण करे |
गवर्नर जनरल के परिषद के सदस्यों की संख्या 4 से घटाकर तीन कर दी गई अब अगर परिषद का एक भी सदस्य गवर्नर जनरल की ओर तो गवर्नर जनरल को निर्णय लेने में आसानी होती थी,
इस प्रकार यह अधिनियम दो कारणों से महत्वपूर्ण था -
पहला भारत में कंपनी के अधीन क्षेत्रों को पहली बार ब्रिटिश अधिपत्य का क्षेत्र कहा गया व
दूसरा ब्रिटिश सरकार को भारत में कंपनी के कार्यों और इसके प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया |
                                   1813 ई. का चार्टर अधिनियम
अधिनियम की विशेषताएं-
*कंपनी के अधिकार-पत्र को 20 सालों के लिए बढ़ा दिया गया. *कंपनी के भारत के साथ व्यापर करने के एकाधिकार को छीन लिया गया. *लेकिन उसे चीन के साथ व्यापर और पूर्वी देशों के साथ चाय के व्यापार के संबंध में 20 सालों के लिए एकाधिकार प्राप्त रहा. *कुछ सीमाओं के अधीन सभी ब्रिटिश नागरिकों के लिए भारत के साथ व्यापार खोल दिया गया.
• इसी अधिनियम के तहत इसाई मिशनरियों को भारत में पहली बार धर्म प्रचार के स्वतंत्र दी गई 
                                          1833 ई. का चार्टर अधिनियम
अधिनियम की विशेषताएं
कंपनी के व्यापारिक अधिकार पूर्णतः समाप्त कर दिए गए.अब कंपनी का कार्य ब्रिटिश सरकार की ओर से मात्र भारत का शासन करना रह गया
इसने मद्रास और बम्बई के गवर्नरों को विधायिका संबंधी शक्ति से वंचित कर भारत के गवर्नर जनरल को पूरे ब्रिटिश भारत में विधायिका के असीमित अधिकार प्रदान किया गया इसीलिए बेंगॉल का गवर्नर अब भारत का गवर्नर बन गया जिसमे सभी नागरिक और सैन्य शक्तियां निहित थीं।भारत का पहला गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक बना 
भारतीय कानूनों का वर्गीकरण किया गया तथा इस कार्य के लिए विधि आयोग की नियुक्ति की व्यवस्था की गई. ब्रिटिश भारत के केन्द्रीयकरण की दिशा में यह अधिनियम निर्णायक कदम था |
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा जीते गए क्षेत्रों को महारानी और उसके परिवार के लोगों के लिए सुरक्षित कर दिया गया
किस एक्ट में कंपनी कोई आदेश दिया गया कि वह भारत में होने वाले किसी भी भर्ती में किसी भी आधार पर भारतीयों के साथ भेदभाव का बर्ताव ना किया जाए साथ ही भारत से दास प्रथा को समाप्त करने का भी कंपनी को निर्देश दिया गया 
इस प्रकार इस अधिनियम के द्वारा कंपनी को पूर्णता एक राजनीतिक कंपनी में तब्दील कर दिया गया जो कि ब्रिटेन के नागरिकों के हितों के लिए संचालित की जाने लगी 
                                               1853 ई. का चार्टर अधिनियम
अधिनियम की विशेषताएं-
इस एक्ट के तहत पहली बार गवर्नर जनरल की परिषद् के विधायी एवं प्रशासनिक कार्यों को अलग कर दिया इसके तहत परिषद् में 6 नए पार्षद और जोड़े गए ,इन्हें विधान पार्षद कहा गया |गवर्नर जनरल की परिषद् में 6 नए सदस्यों में से 4 का चुनाव बंगाल , मद्रास , बम्बई और आगरा की स्थानीय प्रांतीय सरकारों द्वारा किया जाना था |
इसने सिविल सेवाओं की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगता व्यवस्था का शुभारम्भ किया ,और (*पहली बार सिविल सेवा को भारतीयों के लिए खोल दिया गया और इसके लिए 1854 में मैकाले समिति की नियुक्ति कीगई*) |इसने पहली बार भारतीय केंद्रीय विधान परिषद् में स्थानीय प्रतिनिधित्व प्रदान किया | 
      भारत शासन को अधिक अच्छा बनाने के लिए 1858 का अधिनियम
अधिनियम की विशेषताएं
भारत का शासन ब्रिटेन की संसद को दे दिया गया। अब भारत का शासन, ब्रिटिश साम्राज्ञी की ओर से भारत राज्य सचिव (secretary of state for India) को चलाना था जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यीय भारत परिषद (India council) का गठन किया गया। अब भारत के शासन से संबंधित सभी कानूनों एवं कदमों पर भारत सचिव की स्वीकृति अनिवार्य कर दी गयी जबकि भारत परिषद केवल सलाहकारी प्रकृति की थी। (इस प्रकार पिट् इंडिया एक्ट द्वारा प्रारंभ की गयी द्वैध शासन की व्यवस्था समाप्त कर दी गयी)। 
•अखिल भारतीय सेवाओं तथा अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध मसलों पर भारत सचिव, भारत परिषद की राय मानने को।बाध्य था।
भारत के गवर्नर-जनरल को भारत सचिव की आज्ञा के अनुसार कार्य करने के लिये बाध्य कर दिया गया। • अब गवर्नर-जनरल, भारत में ताज के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने लगा। तथा उसे ‘वायसराय' की उपाधि दी
गयी।
महारानी की ओर से देसी रियासतों के लिए वादा किया गया कि कुशासन के आरोप को छोड़ के भारत में कोई भी नया साम्राज्य विस्तार नहीं किया जाएगा तथा यह देसी रियासत अपने अपने क्षेत्रों में अपने शासन कार्यों के लिए स्वतंत्र होंगे 
                           *1861 ई. का भारत परिषद अधिनियम*
अधिनियम की विशेषताएं
गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद का विस्तार किया गया तथा इसके द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीय प्रतिनिधियों को शामिल करने की शुरुआत की गयी 
गवर्नर जनरल को पहली बार अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गई विभागीय प्रणाली का प्रारंभ हुआ,. इस अधिनियम में मद्रास और बम्बई प्रेसीडेन्सियों को विधायी शक्तियां पुनः देकर विकेन्द्रीकरण प्रक्रिया की शुरुआत की गयी 
गवर्नर जरनल को बंगाल, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत और पंजाब में विधान परिषद स्थापित करने की शक्ति प्रदान की गई.
                               *1892 ई. का भारत शासन अधिनियम*
अधिनियम की विशेषताएं-
इसके माध्यम से केंद्रीय और प्रांतीय विधान परिषदों में अतिरिक्त (गैर सरकारी ) सदस्यों की संख्या बढ़ाई गई |
इसने विधान परिषदों के कार्यों में वृद्धि कर उन्हें बजट पर बहस करने और कार्यपालिका के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए अधिकृत किया |इसने केंद्रीय विधान परिषद् और बंगाल चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स में गैर सरकारी सदस्यों के नामांकन के लिए वायसराय की शक्तियों का प्रावधान था |
                         *1909 ई० का भारत शासन अधिनियम [मार्ने -मिंटो सुधार]*
इस अधिनियम के द्वारा लंदन स्थित भारत सचिव की परिषद में 2 भारतीयों क्रमशः
गुरुदास बनर्जी और सैयद हुसैन बिलग्रामी को प्रतिनिधित्व दिया गया 
इस अधिनियम के अन्तर्गत पहली बार किसी भारतीय को वायसराय और गवर्नर की कार्यपरिषद के साथ एसोसिएशन बनाने का प्रावधान किया गया |*सतेन्द्र प्रसाद सिन्हा वायसराय की कार्यपालिका परिषद् के प्रथम भारतीय सदस्य बने | उन्हें विधि सदस्य बनाया गया था।
अधिनियम की विशेषताएं इसने केंद्रीय और प्रांतीय विधानपरिषदों के आकर में काफी वृद्धि की | * केंद्रीय परिषद् में इनकी संख्या 16 से 60 हो गई। *प्रांतीय विधानपरिषदों में इनकी संख्यां एक सामान नही थी 
इसने केंद्रीय परिषद् में सरकारी बहुमत को बनाए रखा लेकिन प्रन्त्येन परिषदों में गैर सरकारी सदस्यों के बहुमत की अनुमति थी |
व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि की गई सदस्यों को आर्थिक प्रस्तावों पर बहस करने उनमें संशोधन प्रस्ताव रखने कुछ विषयों पर मतदान करने प्रश्न पूछने तथा पूर्व प्रश्न पूछने की अनुमति दी गई साथियों ने सार्वजनिक हित के प्रस्ताव को प्रस्तुत करने का भी अधिकार दिया गया परंतु इन अधिकारों के बावजूद भी गवर्नर जनरल तरह गवर्नर ओं को व्यवस्थापिका ओं के प्रस्ताव को ठुकराने का निषेधअधिकार प्राप्त था 
अधिनियम की आलोचना
इस अधिनियम के द्वारा मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल प्रणाली लागू की गई साथ में मुसलमानों को इस मामले में विशेष रियायतें दिया गया उन्हें केंद्रीय प्रांतीय विधान परिषद में जनसंख्या के अनुपात में अधिक प्रतिनिधि भेजने का अधिकार दिया गया ,मुस्लिम मतदाताओं के लिए आय
की योग्यता को भी हिंदुओं की तुलना में कम रखा गया।
  
*1919 ई० का भारत शासन अधिनियम [मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार]*
अधिनियम की विशेषताएं -
केंद्र में द्विसदनात्मक विधायिका की स्थापना की गई- प्रथम राज्य परिषद तथा दूसरी केंद्रीय विधान सभा.
राज्य परिषद के सदस्यों की संख्या 60 थी; जिसमें 34 निर्वाचित होते थे और उनका कार्यकाल 5 वर्षों का होता था केंद्रीय विधान सभा के सदस्यों की संख्या 145 थी, जिनमें 104 निवार्चित तथा41 मनोनीत होते थे इनका कार्यकाल 3 वर्षों का था. दोनों सदनों के अधिकार समान थे.इनमें सिर्फ एक अंतर था कि बजट पर स्वीकृति प्रदान करने का अधिकार निचले सदन को था. 
प्रांतो में द्वैध शासन प्रणाली का प्रवर्तन किया गया.इस योजना के अनुसार प्रांतीय विषयों को दो उपवर्गों में विभाजित किया गया- आरक्षित तथा हस्तांतरित. 
इस अधिनियम ने भारत में एक लोक सेवा आयोग के गठन का प्रावधान किया. 
                                         *1935 ई० का भारत शासन अधिनियम*
इस अधिनियम की विशेषताएं -
अखिल भारतीय संघ: यह संघ 11 ब्रिटिश प्रांतो, 6 चीफ कमिश्नर के क्षेत्रों और उन देशी रियासतों से मिलकर बनना था, जो स्वेच्छा से संघ में सम्मलित हों. प्रांतों के लिए संघ में सम्मिलित होना अनिवार्य था, किंतु देशी रियासतों के लिय यह एच्छिक था. देशी रियासतें संघ में सम्मिलित नहीं हुईं और प्रस्तावित संघ की स्थापना संबंधी घोषणा-पत्र जारी करने का अवसर ही नहीं आया.
केंद्र में द्वैध शासन की स्थापना: कुछ संघीय विषयों सुरक्षा, वैदेशिक संबंध, धार्मिक मामले को गवर्नर जनरल के हाथों में सुरक्षित रखा गया.
प्रांतीय स्वायत्ता: इस अधिनियम के द्वारा प्रांतो में द्वैध शासन व्यवस्था का अंत कर उन्हें एक स्वतंत्र और स्वशासित संवैधानिक आधार प्रदान किया गया.
अन्य संघीय विषयों की व्यवस्था के लिए गवर्नर जनरल को सहायता एवं परामर्श देने हेतु मंत्रिमंडल की व्यवस्था की गई, जो मंत्रिमंडल व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी था.
संघीय न्यायालय की व्यवस्था: इसका अधिकार क्षेत्र प्रांतों तथा रियासतों तक विस्तृत था. इस न्यायलय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा दो अन्य न्यायाधीशों की व्यवस्था की गई. न्यायालय से संबंधित अंतिम शक्ति प्रिवी काउंसिल (लंदन स्थित ) को प्राप्त थी.
ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता: इस अधिनियम में किसी भी प्रकार के परिवर्तन का अधिकार ब्रिटिश संसद के पास था.
प्रांतीय विधान मंडल और संघीय व्यवस्थापिका: में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकते थे.
इस अधिनियम के द्वारा भारत परिषद का अंत कर दिया गया.
सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति का विस्तार: संघीय तथा प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं में विभिन्न सम्प्रदायों को प्रतिनिधित्व देने के लिए सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति को जारी रखा गया और उसका विस्तार आंग्ल भारतीयों - भारतीय ईसाइयों, यूरोपियनों और हरिजनों के लिए भी किया गया. इस अधिनियम में प्रस्तावना का अभाव था
.इसके द्वारा बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया, अदन को इंग्लैंड के औपनिवेशिक कार्यालय के अधीन कर दिया गया 
                             *1947 ई० का भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम*
ब्रिटिश संसद में 4 जुलाई, 1947 ई० को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम प्रस्तावित किया गया, जो 18 जुलाई, 1947 ई० को स्वीकृत हो गया. इस अधिनियम में 20 धाराएं थीं. अधिनियम के प्रमुख प्रावधान निम्न है।
दो अधिराज्यों की स्थापना: 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत एवं पाकिस्तान नामक दो अधिराज्य बना दिए जाएंगे, और। उनको ब्रिटिश सरकार सत्ता सौंप देगी. सत्ता का उत्तरदायित्व दोनों अधिराज्यों की संविधान सभा को सौंपा जाएगा.भारत एवं पाकिस्तान दोनों अधिराज्यों में एक-एक गवर्नर जनरल होंगे, जिनकी नियुक्ति उनके मंत्रिमंडल की सलाह से की जाएगी.
संविधान सभा का विधान मंडल के रूप में कार्य करना- जब तक संविधान सभाएं संविधान का निर्माण नई कर लेतीं, तब तक वह विधान मंडल के रूप में कार्य करती रहेंगीं.भारत-मंत्री के पद समाप्त कर दिए जाएंगें.1935 ई० के भारतीय शासन । अधिनियम द्वारा शासन जब तक संविधान सभा द्वारा नया संविधान बनाकर तैयार नहीं किया जाता है; तब तक उस समय 1935 ई० के भारतीय शासन अधिनियम द्वारा ही शासन होगा.देशी रियासतों पर ब्रिटेन की सर्वोपरिता का अंत कर दिया गया. उनको भारत या पाकिस्तान किसी भी अधिराज्य में सम्मलित होने और अपने भावी संबंधों का निश्चय करने की। स्वतंत्रता प्रदान की गई.

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