भारत का इतिहास
यदि भारत के इतिहास को दुनिया के इतिहास के महान अध्यायों में से एक कहा जाता है, तो इसे अतिरंजित नहीं कहा जा सकता है। इस बारे में बताते हुए, भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा, "विरोधाभासों के साथ जन्मे लेकिन अदृश्य ताकतवर के साथ बंधे"। भारतीय इतिहास की विशेषता यह है कि वह स्वयं को खोजने की निरंतर प्रक्रिया में लगा रहता है और निरंतर बढ़ता रहता है, इसलिए जो लोग इसे एक बार में समझने की कोशिश करते हैं वे इस मायावी को खोज लेते हैं।
इस अद्भुत उपमहाद्वीप का इतिहास लगभग 75,000 साल पुराना है और इसका प्रमाण होमो सेपियन्स की मानव गतिविधि से आता है। यह आश्चर्य की बात है कि 5,000 साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता के निवासियों ने कृषि और व्यापार के आधार पर एक शहरी संस्कृति विकसित की थी।
युग के अनुसार, भारत का इतिहास इस प्रकार
पूर्व ऐतिहासिक काल
पाषाण युगः
पाषाण युग 500,000 से 200,000 साल पहले शुरू हुआ था और तमिलनाडु में हाल ही में हुई खोजो में इस क्षेत्र में सबसे पहले मानव की उपस्थिति का पता चलता है। देश के उत्तर पश्चिमी हिस्से से 200,000 साल पहले के मानव द्वारा बनाए हथियार भी खोजे गए हैं।
कांस्य युगः
भारतीय उपमहाद्वीप में कांस्य युग की शुरुआत लगभग 3,300 ईसा पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता के साथ हुई थी। प्राचीन भारत का एक ऐतिहासिक हिस्सा होने के अलावा यह मेसोपोटामिया और प्राचीन मिस्त्र के साथ साथ विश्व की शुरुआती सभ्यताओं में से एक है। इस युग के लोगों ने धातु विज्ञान और हस्तशिल्प में नई तकनीक विकसित की और तांबा, पीतल, सीसा और टिन का उत्पादन किया।
प्रारंभिक ऐतिहासिक काल
वैदिक कालः
भारत पर हमला करने वालों में पहले आर्य थे। वे लगभग 1,500 ईसा पूर्व उत्तर से आए थे और अपने साथ मजबूत सांस्कृतिक परंपरा लेकर आए। संस्कृत उनके द्वारा बोली जाने वाली सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक थी और वेदों को लिखने में भी इसका उपयोग हुआ जो कि 12वीं ईसा पूर्व के हंै और प्राचीनतम ग्रंथ माने जाते हैं।
वेदों को मेसोपोटामिया और मिस्त्र ग्रंथों के बाद सबसे पुराना ग्रंथ माना जाता है। उपमहाद्वीप में वैदिक काल लगभग 1,500-500 ईसा पूर्व तक रहा और इसमें ही प्रारंभिक भारतीय समाज में हिंदू धर्म और अन्य सांस्कृतिक आयामों की नींव पड़ी। आर्यों ने पूरे उत्तर भारत में खासतौर पर गंगा के मैदानी इलाकों में वैदिक सभ्यता का प्रसार किया।
पाषाण युग- 70000 से 3300 ई.पू | |
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मेहरगढ़ संस्कृति | 7000-3300 ई.पू |
सिन्धु घाटी सभ्यता- 3300-1700 ई.पू | |
हड़प्पा संस्कृति | 1700-1300 ई.पू |
वैदिक काल- 1500–500 ई.पू | |
प्राचीन भारत - 1200 ई.पू–240 ई. | |
महाजनपद | 700–300 ई.पू |
मगध साम्राज्य | 545–320 ई.पू |
सातवाहन साम्राज्य | 230 ई.पू-199 ई. |
मौर्य साम्राज्य | 321–184 ई.पू |
शुंग साम्राज्य | 184–123 ई.पू |
शक साम्राज्य | 123 ई.पू–200 ई. |
कुषाण साम्राज्य | 60–240 ई. |
पूर्व मध्यकालीन भारत- 240 ई.पू– 800 ई. | |
चोल साम्राज्य | 250 ई.पू- 1070 ई. |
गुप्त साम्राज्य | 280–550 ई. |
पाल साम्राज्य | 750–1174 ई. |
प्रतिहार साम्राज्य | 830–963 ई. |
राजपूत काल | 900–1162 ई. |
मध्यकालीन भारत- 500 ई.– 1761 ई. | |
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आधुनिक भारत- 1762–1947 ई. | |
मराठा साम्राज्य | 1674-1818 ई. |
सिख राज्यसंघ | 1716-1849 ई. |
औपनिवेश काल | 1760-1947 ई |
इस अद्भुत उपमहाद्वीप का इतिहास लगभग 75,000 साल पुराना है और इसका प्रमाण होमो सेपियन्स की मानव गतिविधि से आता है। यह आश्चर्य की बात है कि 5,000 साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता के निवासियों ने कृषि और व्यापार के आधार पर एक शहरी संस्कृति विकसित की थी।
युग के अनुसार, भारत का इतिहास इस प्रकार
पूर्व ऐतिहासिक काल
पाषाण युगः
पाषाण युग 500,000 से 200,000 साल पहले शुरू हुआ था और तमिलनाडु में हाल ही में हुई खोजो में इस क्षेत्र में सबसे पहले मानव की उपस्थिति का पता चलता है। देश के उत्तर पश्चिमी हिस्से से 200,000 साल पहले के मानव द्वारा बनाए हथियार भी खोजे गए हैं।
कांस्य युगः
भारतीय उपमहाद्वीप में कांस्य युग की शुरुआत लगभग 3,300 ईसा पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता के साथ हुई थी। प्राचीन भारत का एक ऐतिहासिक हिस्सा होने के अलावा यह मेसोपोटामिया और प्राचीन मिस्त्र के साथ साथ विश्व की शुरुआती सभ्यताओं में से एक है। इस युग के लोगों ने धातु विज्ञान और हस्तशिल्प में नई तकनीक विकसित की और तांबा, पीतल, सीसा और टिन का उत्पादन किया।
प्रारंभिक ऐतिहासिक काल
वैदिक कालः
भारत पर हमला करने वालों में पहले आर्य थे। वे लगभग 1,500 ईसा पूर्व उत्तर से आए थे और अपने साथ मजबूत सांस्कृतिक परंपरा लेकर आए। संस्कृत उनके द्वारा बोली जाने वाली सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक थी और वेदों को लिखने में भी इसका उपयोग हुआ जो कि 12वीं ईसा पूर्व के हंै और प्राचीनतम ग्रंथ माने जाते हैं।
वेदों को मेसोपोटामिया और मिस्त्र ग्रंथों के बाद सबसे पुराना ग्रंथ माना जाता है। उपमहाद्वीप में वैदिक काल लगभग 1,500-500 ईसा पूर्व तक रहा और इसमें ही प्रारंभिक भारतीय समाज में हिंदू धर्म और अन्य सांस्कृतिक आयामों की नींव पड़ी। आर्यों ने पूरे उत्तर भारत में खासतौर पर गंगा के मैदानी इलाकों में वैदिक सभ्यता का प्रसार किया।
महाजनपदः
इस काल में भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के बाद शहरीकरण का दूसरा सबसे बड़ा उदय देखा गया। ‘महा’ शब्द का अर्थ है महान और ‘जनपद’ का अर्थ है किसी जनजाती का आधार। वैदिक युग के अंत में पूरे उपमहाद्वीप में कई छोटे राजवंश और राज्य पनपने लगे थे। इसका वर्णन बौद्ध और जैन साहित्यों में भी है जो कि 1,000 ईसा पूर्व पुराने हैं। 500 ईसा पूर्व तक 16 गणराज्य या कहें कि महाजनपद स्थापित हो चुके थे, जैसे कासी, कोसाला, अंग, मगध, वज्जि या व्रजी, मल्ला, चेडी, वत्स या वम्स, कुरु, पंचाला, मत्स्य, सुरसेना, असाका, अवंति, गंधारा और कंबोजा।
फारसी और यूनानी विजयः
उपमहाद्वीप का ज्यादातर उत्तर पश्चिमी क्षेत्र, जो कि वर्तमान में पाकिस्तान और अफगानिस्तान है, में फारसी आक्मेनीड साम्राज्य के डारियस द ग्रेट के शासन में सी. 520 ईसा पूर्व में आया और करीब दो सदियों तक रहा। 326 ईसा पूर्व में सिकंदर ने एशिया माइनर और आक्मेनीड साम्राज्य पर विजय पाई फिर उसने भारतीय उपमहाद्वीप की उत्तर पश्चिमी सीमा पर पहुंचकर राजा पोरस को हराया और पंजाब के ज्यादातर इलाके पर कब्जा किया।
मौर्य साम्राज्यः
मौर्य वंशजों का मौर्य साम्राज्य 322-185 ईसा पूर्व तक रहा और यह प्राचीन भारत के भौगोलिक रुप से व्यापक एवं राजनीतिक और सैन्य मामले में बहुत शक्तिशाली राज्य था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने इसे उपमहाद्वीप में मगध, जो कि आज के समय में बिहार है, में स्थापित किया और महान राजा अशोक के शासन में यह बहुत उन्नत हुआ।
प्रागैतिहासिक कालः 400000 ई.पू.-1000 ई.पू. : यह वह समय था जब सिर्फ भोजन इकट्ठा करने वाले मानव ने आग और पहिये की खोज की।
सिंधु घाटी सभ्यताः 2500 ई.पू.-1500 ई.पू. : इसका यह नाम सिंधु नदी से आया और यह कृषि करके उन्नत हुई। यहां के लोग प्राकृतिक संसाधनों की भी पूजा करते थे।
महाकाव्य युगः 1000 ई.पू.-600 ई.पू. : इस कालखण्ड में वेदों का संकलन हुआ और वर्णों के भेद हुए जैसे आर्य और दास।
हिंदू धर्म और परिवर्तनः 600 ई.पू.-322 ई.पू. : इस समय में जाति प्रथा बहुत सख्त हो गई थी और यही वह समय था जब महावीर और बुद्ध का आगमन हुआ और उन्होंने जातिवाद के खिलाफ बगावत की। इस काल में महाजनपदों का गठन हुआ और बिम्बिसार के शासन में मगध आया, अजात शत्रु, शिसुनंगा और नंदा राजवंश बने।
मौर्य कालः 322 ई.पू.-185 ई.पू. : चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित इस साम्राज्य के तहत् पूरा उत्तर भारत था और बिंदुसारा ने इसे और बढ़ाया। इस काल में हुए कलिंग युद्ध के बाद राजा अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया।
आक्रमणः 185 ई.पू.-320 ईसवीः इस अवधि में बक्ट्रियन, पार्थियन, शक और कुषाण के आक्रमण हुए। व्यापार के लिए मध्य एशिया खुला, सोने के सिक्कों का चलन और साका युग का प्रारंभ हुआ।
डेक्कन और दक्षिणः 65 ई.पू.-250 ईसवीः इस काल में दक्षिण भाग पर चोल, चेर और पांड्या का शासन रहा और इसी समय में अजंता एलोरा गुफाओं का निर्माण हुआ, संगम साहित्य और भारत में ईसाई धर्म का आगमन हुआ।
गुप्त साम्राज्यः 320 ईसवी-520 ईसवीः इस काल में चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त साम्राज्य की स्थापना की, उत्तर भारत में शास्त्रीय युग का आगमन हुआ, समुद्रगुप्त ने अपने राजवंश का विस्तार किया और चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शाक के विरुद्ध युद्ध किया। इस युग में ही शाकुंतलम और कामसूत्र की रचना हुई। आर्यभट्ट ने खगोल विज्ञान में अद्भुत कार्य किए और भक्ति पंथ भी इस समय उभरा।
छोटे राज्यों का कालः 500 ईसवी-606 ईसवीः इस युग में हूणों के उत्तर भारत में आने से मध्य एशिया और ईरान में पलायन देखा गया।
उत्तर में कई राजवंशों के परस्पर युद्ध करने से बहुत से छोटे राज्यों का निर्माण हुआ।
हर्षवर्धनः 606 ई-647 ईसवीः हर्षवर्धन के शासनकाल में प्रसिद्ध चीनी यात्री हेन त्सांग ने भारत की यात्रा की। हूणों के हमले से हर्षवर्धन का राज्य कई छोटे राज्यों में बँट गया।
यह वह समय था जब डेक्कन और दक्षिण बहुत शक्तिशाली बन गए।
दक्षिण राजवंशः 500ई-750 ईसवीः इस दौर में चालुक्य, पल्लव और पंड्या साम्राज्य पनपा और पारसी भारत आए।
चोल साम्राज्यः 9वीं सदी ई-13वीं सदी ईसवीः विजयालस द्वारा स्थापित चोल साम्राज्य ने समुद्र नीति अपनाई।
अब मंदिर सांस्कृतिक और सामाजिक केन्द्र होने लगे और द्रविडि़यन भाषा फलीफूली।
उत्तरी साम्राज्यः 750ई-1206 ईसवीः इस समय राष्ट्रकूट ताकतवर हुआ, प्रतिहार ने अवंति और पलस ने बंगाल पर शासन किसा। इस दौर ने राजपूत कुलों का उदय देखा।
खजुराहो, कांचीपुरम, पुरी में मंदिरों का निर्माण हुआ और लघु चित्रकारी शुरु हुई। इस अवधि में तुर्कों का आक्रमण हुआ।
मुगल साम्राज्यः फरगाना वैलर जो कि आज का उज़बेकिस्तान है, के तैमूर और चंगेज़ खान के वंशज बाबर ने सन् 1526 में खैबर दर्रे को पार किया और वहां मुगल साम्राज्य की स्थापना की, जहां आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश है। सन् 1600 तक मुगल वंश ने ज्यादातर भारतीय उपमहाद्वीप पर राज किया। सन् 1700 के बाद इस वंश का पतन होने लगा और आखिरकार भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के समय सन् 1857 में पूरी तरह खात्मा हो गया। आने वाला समय जो इस्लामिक प्रभाव और भारत पर शासन के साथ सशक्त रूप से संबंध रखता है, मध्य कालीन भारतीय इतिहास तथाकथित स्वदेशी शासकों के अधीन लगभग तीन शताब्दियों तक चलता रहा, जिसमें चालुक्य, पल्व, पाण्डया, राष्ट्रकूट शामिल हैं, मुस्लिम शासक और अंतत: मुगल साम्राज्य। नौवी शताब्दी के मध्य में उभरने वाला सबसे महत्वपूर्ण राजवंश चोल राजवंश था।
इस काल में भारत में सिंधु घाटी सभ्यता के बाद शहरीकरण का दूसरा सबसे बड़ा उदय देखा गया। ‘महा’ शब्द का अर्थ है महान और ‘जनपद’ का अर्थ है किसी जनजाती का आधार। वैदिक युग के अंत में पूरे उपमहाद्वीप में कई छोटे राजवंश और राज्य पनपने लगे थे। इसका वर्णन बौद्ध और जैन साहित्यों में भी है जो कि 1,000 ईसा पूर्व पुराने हैं। 500 ईसा पूर्व तक 16 गणराज्य या कहें कि महाजनपद स्थापित हो चुके थे, जैसे कासी, कोसाला, अंग, मगध, वज्जि या व्रजी, मल्ला, चेडी, वत्स या वम्स, कुरु, पंचाला, मत्स्य, सुरसेना, असाका, अवंति, गंधारा और कंबोजा।
फारसी और यूनानी विजयः
उपमहाद्वीप का ज्यादातर उत्तर पश्चिमी क्षेत्र, जो कि वर्तमान में पाकिस्तान और अफगानिस्तान है, में फारसी आक्मेनीड साम्राज्य के डारियस द ग्रेट के शासन में सी. 520 ईसा पूर्व में आया और करीब दो सदियों तक रहा। 326 ईसा पूर्व में सिकंदर ने एशिया माइनर और आक्मेनीड साम्राज्य पर विजय पाई फिर उसने भारतीय उपमहाद्वीप की उत्तर पश्चिमी सीमा पर पहुंचकर राजा पोरस को हराया और पंजाब के ज्यादातर इलाके पर कब्जा किया।
मौर्य साम्राज्यः
मौर्य वंशजों का मौर्य साम्राज्य 322-185 ईसा पूर्व तक रहा और यह प्राचीन भारत के भौगोलिक रुप से व्यापक एवं राजनीतिक और सैन्य मामले में बहुत शक्तिशाली राज्य था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने इसे उपमहाद्वीप में मगध, जो कि आज के समय में बिहार है, में स्थापित किया और महान राजा अशोक के शासन में यह बहुत उन्नत हुआ।
प्राचीन भारतीय इतिहास का घटनाक्रम
प्रागैतिहासिक कालः 400000 ई.पू.-1000 ई.पू. : यह वह समय था जब सिर्फ भोजन इकट्ठा करने वाले मानव ने आग और पहिये की खोज की।
सिंधु घाटी सभ्यताः 2500 ई.पू.-1500 ई.पू. : इसका यह नाम सिंधु नदी से आया और यह कृषि करके उन्नत हुई। यहां के लोग प्राकृतिक संसाधनों की भी पूजा करते थे।
महाकाव्य युगः 1000 ई.पू.-600 ई.पू. : इस कालखण्ड में वेदों का संकलन हुआ और वर्णों के भेद हुए जैसे आर्य और दास।
हिंदू धर्म और परिवर्तनः 600 ई.पू.-322 ई.पू. : इस समय में जाति प्रथा बहुत सख्त हो गई थी और यही वह समय था जब महावीर और बुद्ध का आगमन हुआ और उन्होंने जातिवाद के खिलाफ बगावत की। इस काल में महाजनपदों का गठन हुआ और बिम्बिसार के शासन में मगध आया, अजात शत्रु, शिसुनंगा और नंदा राजवंश बने।
मौर्य कालः 322 ई.पू.-185 ई.पू. : चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित इस साम्राज्य के तहत् पूरा उत्तर भारत था और बिंदुसारा ने इसे और बढ़ाया। इस काल में हुए कलिंग युद्ध के बाद राजा अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया।
आक्रमणः 185 ई.पू.-320 ईसवीः इस अवधि में बक्ट्रियन, पार्थियन, शक और कुषाण के आक्रमण हुए। व्यापार के लिए मध्य एशिया खुला, सोने के सिक्कों का चलन और साका युग का प्रारंभ हुआ।
डेक्कन और दक्षिणः 65 ई.पू.-250 ईसवीः इस काल में दक्षिण भाग पर चोल, चेर और पांड्या का शासन रहा और इसी समय में अजंता एलोरा गुफाओं का निर्माण हुआ, संगम साहित्य और भारत में ईसाई धर्म का आगमन हुआ।
गुप्त साम्राज्यः 320 ईसवी-520 ईसवीः इस काल में चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त साम्राज्य की स्थापना की, उत्तर भारत में शास्त्रीय युग का आगमन हुआ, समुद्रगुप्त ने अपने राजवंश का विस्तार किया और चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शाक के विरुद्ध युद्ध किया। इस युग में ही शाकुंतलम और कामसूत्र की रचना हुई। आर्यभट्ट ने खगोल विज्ञान में अद्भुत कार्य किए और भक्ति पंथ भी इस समय उभरा।
छोटे राज्यों का कालः 500 ईसवी-606 ईसवीः इस युग में हूणों के उत्तर भारत में आने से मध्य एशिया और ईरान में पलायन देखा गया।
उत्तर में कई राजवंशों के परस्पर युद्ध करने से बहुत से छोटे राज्यों का निर्माण हुआ।
हर्षवर्धनः 606 ई-647 ईसवीः हर्षवर्धन के शासनकाल में प्रसिद्ध चीनी यात्री हेन त्सांग ने भारत की यात्रा की। हूणों के हमले से हर्षवर्धन का राज्य कई छोटे राज्यों में बँट गया।
यह वह समय था जब डेक्कन और दक्षिण बहुत शक्तिशाली बन गए।
दक्षिण राजवंशः 500ई-750 ईसवीः इस दौर में चालुक्य, पल्लव और पंड्या साम्राज्य पनपा और पारसी भारत आए।
चोल साम्राज्यः 9वीं सदी ई-13वीं सदी ईसवीः विजयालस द्वारा स्थापित चोल साम्राज्य ने समुद्र नीति अपनाई।
अब मंदिर सांस्कृतिक और सामाजिक केन्द्र होने लगे और द्रविडि़यन भाषा फलीफूली।
उत्तरी साम्राज्यः 750ई-1206 ईसवीः इस समय राष्ट्रकूट ताकतवर हुआ, प्रतिहार ने अवंति और पलस ने बंगाल पर शासन किसा। इस दौर ने राजपूत कुलों का उदय देखा।
खजुराहो, कांचीपुरम, पुरी में मंदिरों का निर्माण हुआ और लघु चित्रकारी शुरु हुई। इस अवधि में तुर्कों का आक्रमण हुआ।
मध्यकालीन भारतीय इतिहास
मुगल साम्राज्यः फरगाना वैलर जो कि आज का उज़बेकिस्तान है, के तैमूर और चंगेज़ खान के वंशज बाबर ने सन् 1526 में खैबर दर्रे को पार किया और वहां मुगल साम्राज्य की स्थापना की, जहां आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश है। सन् 1600 तक मुगल वंश ने ज्यादातर भारतीय उपमहाद्वीप पर राज किया। सन् 1700 के बाद इस वंश का पतन होने लगा और आखिरकार भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के समय सन् 1857 में पूरी तरह खात्मा हो गया। आने वाला समय जो इस्लामिक प्रभाव और भारत पर शासन के साथ सशक्त रूप से संबंध रखता है, मध्य कालीन भारतीय इतिहास तथाकथित स्वदेशी शासकों के अधीन लगभग तीन शताब्दियों तक चलता रहा, जिसमें चालुक्य, पल्व, पाण्डया, राष्ट्रकूट शामिल हैं, मुस्लिम शासक और अंतत: मुगल साम्राज्य। नौवी शताब्दी के मध्य में उभरने वाला सबसे महत्वपूर्ण राजवंश चोल राजवंश था।
पाल
आठवीं और दसवीं शताब्दी ए.डी. के बीच अनेक शक्तिशाली शासकों ने भारत के पूर्वी और उत्तरी भागों पर प्रभुत्व बनाए रखा। पाल राजा धर्मपाल, जो गोपाल के पुत्र थे, में आठवीं शताब्दी ए.डी. से नौवी शताब्दी ए.डी. के अंत तक शासन किया। धर्मपाल द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय की स्थापना इसी अवधि में की गई।
सेन
पाल वंश के पतन के बाद सेन राजवंश ने बंगाल में शासन स्थापित किया। इस राजवंश के स्थापक सामंत सेन थे। इस राजवंश के महानतम शासक विजय सेन थे। उन्होंने पूरे बंगाल पर कब्जा किया और उनके बाद उनके पुत्र बल्लाल सेन ने राज किया। उनका शासन शांतिपूर्ण रहा किन्तु इसने अपने विचारधाराओं को समूचा बनाए रखा। वे एक महान विद्वान थे तथा उन्होंने ज्योतिष विज्ञान पर एक पुस्तक सहित चार पुस्तके लिखी। इस राजवंश के अंतिम शासक लक्ष्मण सेन थे, जिनके कार्यकाल में मुस्लिमों ने बंगाल पर शासन किया और फिर साम्राज्य समाप्त हो गया।
प्रतिहार
प्रतिहार राजवंश के महानतम शासक मिहिर भोज थे। उन्होंने 836 में कन्नौज (कान्यकुब्ज) की खोज की और लगभग एक शताब्दी तक प्रतिहारों की राजधानी बनाया। उन्होंने भोजपाल (वर्तमान भोपाल) शहर का निर्माण किया। राजा भोज और उनके अन्य सहवर्ती गुजर राजाओं को पश्चिम की ओर से अरब जनों के अनेक आक्रमणों का सामना करना पड़ा और पराजित होना पड़ा।
वर्ष 915 - 918 ए.डी. के बीच कन्नौज पर राष्ट्रकूट राजा ने आक्रमण किया। जिसने शहर को विरान बना दिया और प्रतिहार साम्राज्य की जड़ें कमजोर दी। वर्ष 1018 में कन्नौज ने राज्यपाल प्रतिहार का शासन देखा, जिसे गजनी के महमूद ने लूटा। पूरा साम्राज्य स्वतंत्रता राजपूत राज्यों में टूट गया।
राष्ट्रकूट
इस राजवंश ने कर्नाटक पर राज्य किया और यह कई कारणों से उल्लेखनीय है। उन्होंने किसी अन्य राजवंश की तुलना में एक बड़े हिस्से पर राज किया। वे कला और साहित्व के महान संरक्षक थे। अनेक राष्टकूट राजाओं द्वारा शिक्षा और साहित्य को दिया गया प्रोत्साहन अनोखा है और उनके द्वारा धार्मिक सहनशीलता का उदाहरण अनुकरणीय है।
दक्षिण का चोल राजवंश
यह भारतीय महाद्वीप के एक बड़े हिस्से को शामिल करते हुए नौवीं शताब्दी ए.डी. के मध्य में उभरा साथ ही यह श्रीलंका तथा मालदीव में भी फैला था।
इस राजवंश से उभरने वाला प्रथम महत्वपूर्ण शासक राजराजा चोल 1 और उनके पुत्र तथा उत्तरवर्ती राजेन्द्र चोल थे। राजराजा ने अपने पिता की जोड़ने की नीति को आगे बढ़ाया। उसने बंगाल, ओडिशा और मध्य प्रदेश के दूरदराज के इलाकों पर सशस्त्र चढ़ाई की।
राजेन्द्र I, राजाधिराज और राजेन्द्र II के उत्तरवर्ती निडर शासक थे जो चालुक्य राजाओं से आगे चलकर वीरतापूर्वक लड़े किन्तु चोल राजवंश के पतन को रोक नहीं पाए। आगे चलकर चोल राजा कमजोर और अक्षम शासक सिद्ध हुए। इस प्रकार चोल साम्राज्य आगे लगभग डेढ़ शताब्दी तक आगे चला और अंतत: चौदहवीं शताब्दी ए.डी. की शुरूआत में मलिक कफूर के आक्रमण पर समाप्त हो गया।
दक्षिण एशिया में इस्लाम का उदय
पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु के बाद प्रथम शताब्दी में दक्षिण एशिया के अंदर इस्लाम का आरंभिक प्रवेश हुआ। उमायद खलीफा ने डमस्कस में बलूचिस्तान और सिंध पर 711 में मुहम्मद बिन कासिन के नेतृत्व में चढ़ाई की। उन्होंने सिंध और मुलतान पर कब्जा कर लिया। उनकी मौत के 300 साल बाद सुल्तान मेहमूद गजनी, जो एक खूंख्वार नेता थे, ने राजपूत राजशाहियों के विरुद्ध तथा धनवान हिन्दू मंदिरों पर छापामारी की एक श्रृंखला आरंभ की तथा भावी चढ़ाइयों के लिए पंजाब में अपना एक आधार स्थापित किया। वर्ष 1024 में सुल्तान ने अरब सागर के साथ काठियावाड़ के दक्षिणी तट पर अपना अंतिम प्रसिद्ध खोज का दौर शुरु किया, जहां उसने सोमनाथ शहर पर हमला किया और साथ ही अनेक प्रतिष्ठित हिंदू मंदिरों पर आक्रमण किया।
भारत में मुस्लिम आक्रमण
मोहम्मद गोरी ने मुल्तान और पंजाब पर विजय पाने के बाद 1175 ए.डी. में भारत पर आक्रमण किया, वह दिल्ली की ओर आगे बढ़ा। उत्तरी भारत के बहादुर राजपूत राजाओं ने पृथ्वी राज चौहान के नेतृत्व में 1191 ए.डी. में तराइन के प्रथम युद्ध में पराजित किया। एक साल चले युद्ध के पश्चात मोहम्मद गोरी अपनी पराजय का बदला लेने दोबारा आया। वर्ष 1192 ए.डी. के दौरान तराइन में एक अत्यंत भयानक युद्ध लड़ा गया, जिसमें राजपूत पराजित हुए और पृथ्वी राज चौहान को पकड़ कर मौत के घाट उतार दिया गया। तराइन का दूसरा युद्ध एक निर्णायक युद्ध सिद्ध हुआ और इसमें उत्तरी भारत में मुस्लिम शासन की आधारशिला रखी।
दिल्ली की सल्तनत
भारत के इतिहास में 1206 ए.डी. और 1526 ए.डी. के बीच की अवधि दिल्ली का सल्तनत कार्यकाल कही जाती है। इस अवधि के दौरान 300 वर्षों से अधिक समय में दिल्ली पर पांच राजवंशों ने शासन किया। ये थे गुलाम राजवंश (1206-90), खिलजी राजवंश (1290-1320), तुगलक राजवंश (1320-1413), सायीद राजवंश (1414-51), और लोदी राजवंश (1451-1526)।
गुलाम राजवंश
इस्लाम में समानता की संकल्पना और मुस्लिम परम्पराएं दक्षिण एशिया के इतिहास में अपने चरम बिन्दु पर पहुंच गई, जब गुलामों ने सुल्तान का दर्जा हासिल किया। गुलाम राजवंश ने लगभग 84 वर्षों तक इस उप महाद्वीप पर शासन किया। यह प्रथम मुस्लिम राजवंश था जिसने भारत पर शासन किया। मोहम्मद गोरी का एक गुलाम कुतुब उद दीन ऐबक अपने मालिक की मृत्यु के बाद शासक बना और गुलाम राजवंश की स्थापना की। वह एक महान निर्माता था जिसने दिल्ली में कुतुब मीनार के नाम से विख्यात आश्चर्यजनक 238 फीट ऊंचे पत्थर के स्तंभ का निर्माण कराया।
गुलाम राजवंश का अगला महत्वपूर्ण राजा शम्स उद दीन इलतुतमश था, जो कुतुब उद दीन ऐबक का गुलाम था। इलतुतमश ने 1211 से 1236 के बीच लगभग 26 वर्ष तक राज किया और वह मजबूत आधार पर दिल्ली की सल्तनत स्थापित करने के लिए उत्तरदायी था। इलतुतमश की सक्षम बेटी, रजिया बेगम अपनी और अंतिम मुस्लिम महिला थी जिसने दिल्ली के तख्त पर राज किया। वह बहादुरी से लड़ी किन्तु अंत में पराजित होने पर उसे मार डाला गया।
अंत में इलतुतमश के सबसे छोटे बेटे नसीर उद दीन मेहमूद को 1245 में सुल्तान बनाया गया। जबकि मेहमूद ने लगभग 20 वर्ष तक भारत पर शासन किया। किन्तु अपने पूरे कार्यकाल में उसकी मुख्य शक्ति उसके प्रधानमंत्री बलबन के हाथों में रही। मेहमूद की मौत होने पर बलबन ने सिंहासन पर कब्ज़ा किया और दिल्ली पर राज किया। वर्ष 1266 से 1287 तक बलबन ने अपने कार्यकाल में साम्राज्य का प्रशासनिक ढांचा सुगठित किया तथा इलतुतमश द्वारा शुरू किए गए कार्यों को पूरा किया।
खिलजी राजवंश
बलवन की मौत के बाद सल्तनत कमजोर हो गई और यहां कई बगावतें हुईं। यही वह समय था जब राजाओं ने जलाल उद दीन खिलजी को राजगद्दी पर बिठाया। इससे खिलजी राजवंश की स्थापना आरंभ हुई। इस राजवंश का राजकाज 1290 ए.डी. में शुरू हुआ। अला उद दीन खिलजी जो जलाल उद दीन खिलजी का भतीजा था, ने षड़यंत्र किया और सुल्तान जलाल उद दीन को मार कर 1296 में स्वयं सुल्तान बन बैठा। अला उद दीन खिलजी प्रथम मुस्लिम शासक था जिसके राज्य ने पूरे भारत का लगभग सारा हिस्सा दक्षिण के सिरे तक शामिल था। उसने कई लड़ाइयां लड़ी, गुजरात, रणथम्भौर, चित्तौड़, मलवा और दक्षिण पर विजय पाई। उसके 20 वर्ष के शासन काल में कई बार मंगोलों ने देश पर आक्रमण किया किन्तु उन्हें सफलतापूर्वक पीछे खदेड़ दिया गया। इन आक्रमणों से अला उद दीन खिलजी ने स्वयं को तैयार रखने का सबक लिया और अपनी सशस्त्र सेनाओं को संपुष्ट तथा संगठित किया। वर्ष 1316 ए.डी. में अला उद दीन की मौत हो गई और उसकी मौत के साथ खिलजी राजवंश समाप्त हो गया।
तुगलक राजवंश
गयासुद्दीन तुगलक, जो अला उद दीन खिलजी के कार्यकाल में पंजाब का राज्यपाल था, 1320 ए.डी. में सिंहासन पर बैठा और तुगलक राजवंश की स्थापना की। उसने वारंगल पर विजय पाई और बंगाल में बगावत की। मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने पिता का स्थान लिया और अपने राज्य को भारत से आगे मध्य एशिया तक आगे बढ़ाया। मंगोल ने तुगलक के शासन काल में भारत पर आक्रमण किया और उन्हें भी इस बार हराया गया।
मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी राजधानी को दक्षिण में सबसे पहले दिल्ली से हटाकर देवगिरी में स्थापित किया। जबकि इसे दो वर्ष में वापस लाया गया। उसने एक बड़े साम्राज्य को विरासत में पाया था किन्तु वह कई प्रांतों को अपने नियंत्रण में नहीं रख सका, विशेष रूप से दक्षिण और बंगाल को। उसकी मौत 1351 ए.डी. में हुई और उसके चचेरे भाई फिरोज़ तुगलक ने उसका स्थान लिया।
फिरोज तुगलक ने साम्राज्य की सीमाएं आगे बढ़ाने में बहुत अधिक योगदान नहीं दिया, जो उसे विरासत में मिली थी। उसने अपनी शक्ति का अधिकांश भाग लोगों के जीवन को बेहतर बनाने में लगाया। वर्ष 1338 ने उसकी मौत के बाद तुगलक राजवंश लगभग समाप्त हो गया। यद्यपि तुगलक शासन 1412 तक चलता रहा फिर भी 1398 में तैमूर द्वारा दिल्ली पर आक्रमण को तुगलक साम्राज्य का अंत कहा जा सकता है।
तैमूर का आक्रमण
तुगलक राजवंश के अंतिम राजा के कार्याकाल के दौरान शक्तिशाली राजा तैमूर या टेमरलेन ने 1398 ए.डी. में भारत पर आक्रमण किया। उसने सिंधु नदी को पार किया और मुल्तान पर कब्ज़ा किया तथा बहुत अधिक प्रतिरोध का सामना न करते हुए दिल्ली तक चला आया।
सायीद राजवंश
इसके बाद खिज़ार खान द्वारा सायीद राजवंश की स्थापना की गई। सायीद ने लगभग 1414 ए.डी. से 1450 ए.डी. तक शासन किया। खिज़ार खान ने लगभग 37 वर्ष तक राज्य किया। सायीद राजवंश में अंतिम मोहम्मद बिन फरीद थे। उनके कार्यकाल में भ्रम और बगावत की स्थिति बनी हुई। यह साम्राज्य उनकी मृत्यु के बाद 1451 ए.डी. में समाप्त हो गया।
लोदी राजवंश
बुहलुल खान लोदी (1451-1489 ए. डी.)
वे लोदी राजवंश के प्रथम राजा और संस्थापक थे। दिल्ली की सलतनत को उनकी पुरानी भव्यता में वापस लाने के लिए विचार से उन्होंने जौनपुर के शक्तिशाली राजवंश के साथ अनेक क्षेत्रों पर विजय पाई। बुहलुल खान ने ग्वालियर, जौनपुर और उत्तर प्रदेश में अपना क्षेत्र विस्तारित किया।
सिकंदर खान लोदी (1489-1517 ए. डी.)
बुहलुल खान की मृत्यु के बाद उनके दूसरे पुत्र निज़ाम शाह राजा घोषित किए गए और 1489 में उन्हें सुल्तान सिकंदर शाह का खिताब दिया गया। उन्होंने अपने राज्य को मजबूत बनाने के सभी प्रयास किए और अपना राज्य पंजाब से बिहार तक विस्तारित किया। वे बहुत अच्छे प्रशासक और कलाओं तथा लिपि के संरक्षक थे। उनकी मृत्यु 1517 ए.डी. में हुई।
इब्राहिम खान लोदी (1489-1517 ए. डी.)
सिकंदर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र इब्राहिम को गद्दी पर बिठाया गया। इब्राहिम लोदी एक सक्षम शासक सिद्ध नहीं हुए। वे राजाओं के साथ अधिक से अधिक सख्त होते गए। वे उनका अपमान करते थे और इस प्रकार इन अपमानों का बदला लेने के लिए दौलतखान लोदी, लाहौर के राज्यपाल और सुल्तान इब्राहिम लोदी के एक चाचा, अलाम खान ने काबुल के शासक, बाबर को भारत पर कब्ज़ा करने का आमंत्रण दिया। इब्राहिम लोदी को बाबर की सेना ने 1526 ए. डी. में पानीपत के युद्ध में मार गिराया। इस प्रकार दिल्ली की सल्तनत अंतत: समाप्त हो गई और भारत में मुगल शासन का मार्ग प्रशस्त हुआ।
विजयनगर साम्राज्य
जब मुहम्मद तुगलक दक्षिण में अपनी शक्ति खो रहा था तब दो हिन्दु राजकुमार हरिहर और बूक्का ने कृष्णा और तुंगभद्रा नदियों के बीच 1336 में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। जल्दी ही उन्होंने उत्तर दिशा में कृष्णा नदी तथा दक्षिण में कावेरी नदी के बीच इस पूरे क्षेत्र पर अपना राज्य स्थापित कर लिया। विजयनगर साम्राज्य की बढ़ती ताकत से इन कई शक्तियों के बीच टकराव हुआ और उन्होंने बहमनी साम्राज्य के साथ बार बार लड़ाइयां लड़ी।
विजयनगर साम्राज्य के सबसे प्रसिद्ध राजा कृष्ण देव राय थे। विजयनगर का राजवंश उनके कार्यकाल में भव्यता के शिखर पर पहुंच गया। वे उन सभी लड़ाइयों में सफल रहे जो उन्होंने लड़ी। उन्होंने ओडिशा के राजा को पराजित किया और विजयवाड़ा तथा राज महेन्द्री को जोड़ा।
कृष्ण देव राय ने पश्चिमी देशों के साथ व्यापार को प्रोत्साहन दिया। उनके पुर्तगालियों के साथ अच्छे संबंध थे, जिनका व्यापार उन दिनों भारत के पश्चिमी तट पर व्यापारिक केन्द्रों के रूप में स्थापित हो चुका था। वे न केवल एक महान योद्धा थे बल्कि वे कला के पारखी और अधिगम्यता के महान संरक्षक रहे। उनके कार्यकाल में तेलगु साहित्य काफी फला फुला। उनके तथा उनके उत्तरवर्तियों द्वारा चित्रकला, शिल्पकला, नृत्य और संगीत को काफी बढ़ावा दिया गया। उन्होंने अपने व्यक्तिगत आकर्षण, दयालुता और आदर्श प्रशासन द्वारा लोगों को प्रश्रय दिया।
विजयनगर साम्राज्य का पतन 1529 में कृष्ण देव राय की मृत्यु के साथ शुरू हुआ। यह साम्राज्य 1565 में पूरी तरह समाप्त हो गया जब आदिलशाही, निजामशाही, कुतुब शाही और बरीद शाही के संयुक्त प्रयासों द्वारा तालीकोटा में रामराय को पराजित किया गया। इसके बाद यह साम्राज्य छोटे छोटे राज्यों में टूट गया।
भक्ति आंदोलन
मध्यकालीन भारत का सांस्कृतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था सामाजिक - धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज में लाई गई मौन क्रांति, एक ऐसी क्रांति जिसे भक्ति अभियान के नाम से जाना जाता है। यह अभियान हिन्दुओं, मुस्लिमों और सिक्खों द्वारा भारतीय उप महाद्वीप में भगवान की पूजा के साथ जुड़े रीति रिवाजों के लिए उत्तरदायी था। उदाहरण के लिए, हिन्दू मंदिरों में कीर्तन, दरगाह में कव्वाली (मुस्लिमों द्वारा) और गुरुद्वारे में गुरबानी का गायन, ये सभी मध्यकालीन इतिहास में (800 - 1700) भारतीय भक्ति आंदोलन से उत्पन्न हुए हैं। इस हिन्दू क्रांतिकारी अभियान के नेता थे शंकराचार्य, जो एक महान विचारक और जाने माने दार्शनिक रहे। इस अभियान को चैतन्य महाप्रभु, नामदेव, तुकाराम, जयदेव ने और अधिक मुखरता प्रदान की। इस अभियान की प्रमुख उपलब्धि मूर्ति पूजा को समाप्त करना रहा।
भक्ति आंदोलन के नेता रामानंद ने राम को भगवान के रूप में लेकर इसे केन्द्रित किया। उनके बारे में बहुत कम जानकारी है, परन्तु ऐसा माना जाता है कि वे 15वीं शताब्दी के प्रथमार्ध में रहे। उन्होंने सिखाया कि भगवान राम सर्वोच्च भगवान हैं और केवल उनके प्रति प्रेम और समर्पण के माध्यम से तथा उनके पवित्र नाम को बार - बार उच्चारित करने से ही मुक्ति पाई जाती है।
चैतन्य महाप्रमु एक पवित्र हिन्दू भिक्षु और सामाजिक सुधार थे तथा वे सोलहवीं शताब्दी के दौरान बंगाल में हुए। भगवान के प्रति प्रेम भाव रखने के प्रबल समर्थक, भक्ति योग के प्रवर्तक, चैतन्य ने ईश्वर की आराधना श्रीकृष्ण के रूप में की।
श्री रामनुज आचार्य भारतीय दर्शनशास्त्री थे और उन्हें सर्वाधिक महत्वपूर्ण वैष्णव संत के रूप में मान्यता दी गई है। रामानंद ने उत्तर भारत में जो किया वही रामानुज ने दक्षिण भारत में किया। उन्होंने रुढिवादी कुविचार की बढ़ती औपचारिकता के विरुद्ध आवाज उठाई और प्रेम तथा समर्पण की नींव पर आधारित वैष्णव विचाराधारा के नए सम्प्रदायक की स्थापना की। उनका सर्वाधिक असाधारण योगदान अपने मानने वालों के बीच जाति के भेदभाव को समाप् करना।
बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन के अनुयायियों में भगत नामदेव और संत कबीर दास शामिल हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भगवान की स्तुति के भक्ति गीतों पर बल दिया।
प्रथम सिक्ख गुरु, और सिक्ख धर्म के प्रवर्तक, गुरु नानक जी भी निर्गुण भक्ति संत थे और समाज सुधारक थे। उन्होंने सभी प्रकार के जाति भेद और धार्मिक शत्रुता तथा रीति रिवाजों का विरोध किया। उन्होंने ईश्वर के एक रूप माना तथा हिन्दू और मुस्लिम धर्म की औपचारिकताओं तथा रीति रिवाजों की आलोचना की। गुरु नानक का सिद्धांत सभी लोगों के लिए था। उन्होंने हर प्रकार से समानता का समर्थन किया।
सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में भी अनेक धार्मिक सुधारकों का उत्थान हुआ। वैष्णव सम्प्रदाय के राम के अनुयायी तथा कृष्ण के अनुयायी अनेक छोटे वर्गों और पंथों में बंट गए। राम के अनुयायियों में प्रमुख संत कवि तुलसीदास थे। वे अत्यंत विद्वान थे और उन्होंने भारतीय दर्शन तथा साहित्य का गहरा अध्ययन किया। उनकी महान कृति 'राम चरित मानस' जिसे जन साधारण द्वारा तुलसीकृत रामायण कहा जाता है, हिन्दू श्रृद्धालुओं के बीच अत्यंत लोकप्रिय है। उन्होंने लोगों के बीच श्री राम की छवि सर्वव्यापी, सर्व शक्तिमान, दुनिया के स्वामी और परब्रह्म के साकार रूप से बनाई।
कृष्ण के अनुयायियों ने 1585 ए. डी में हरिवंश के अंतर्गत राधा बल्लभी पंथ की स्थापना की। सूर दास ने ब्रज भाषा में ''सूर सरागर'' की रचना की, जो श्री कृष्ण के मोहक रूप तथा उनकी प्रेमिका राधा की कथाओं से परिपूर्ण है।
मुगल राजवंश
भारत में मुगल राजवंश महानतम शासकों में से एक था। मुगल शासकों ने हज़ारों लाखों लोगों पर शासन किया। भारत एक नियम के तहत एकत्र हो गया और यहां विभिन्न प्रकार की सांस्कृतिक और राजनैतिक समय अवधि मुगल शासन के दौरान देखी गई। पूरे भारत में अनेक मुस्लिम और हिन्दु राजवंश टूटे, और उसके बाद मुगल राजवंश के संस्थापक यहां आए। कुछ ऐसे लोग हुए हैं जैसे कि बाबर, जो महान एशियाई विजेता तैमूर लंग का पोता था और गंगा नदी की घाटी के उत्तरी क्षेत्र से आए विजेता चंगेज़खान, जिसने खैबर पर कब्जा करने का निर्णय लिया और अंतत: पूरे भारत पर कब्ज़ा कर लिया।
बाबर (1526-1530):
यह तैमूर लंग और चंगेज़खान का प्रपौत्र था जो भारत में प्रथम मुगल शासक थे। उसने पानीपत के प्रथम युद्ध में 1526 के दौरान लोधी वंश के साथ संघर्ष कर उन्हें पराजित किया और इस प्रकार अंत में मुगल राजवंश की स्थापना हुई। बाबर ने 1530 तक शासन किया और उसके बाद उसका बेटा हुमायूं गद्दी पर बैठा।
हुमायूं (1530-1540 और 1555-1556):
बाबर का सबसे बड़ा था जिसने अपने पिता के बाद राज्य संभाला और मुगल राजवंश का द्वितीय शासक बना। उसने लगभग 1 दशक तक भारत पर शासन किया किन्तु फिर उसे अफगानी शासक शेर शाह सूरी ने पराजित किया। हुमायूं अपनी पराजय के बाद लगभग 15 वर्ष तक भटकता रहा। इस बीच शेर शाह मौत हो गई और हुमायूं उसके उत्तरवर्ती सिकंदर सूरी को पराजित करने में सक्षम रहा तथा दोबारा हिन्दुस्तान का राज्य प्राप्त कर सका। जबकि इसके कुछ ही समय बाद केवल 48 वर्ष की उम्र में 1556 में उसकी मौत हो गई।
शेर शाह सूरी (1540-1545):
एक अफगान नेता था जिसने 1540 में हुमायूं को पराजित कर मुगल शासन पर विजय पाई। शेर शाह ने अधिक से अधिक 5 वर्ष तक दिल्ली के तख्त पर राज किया और वह इस उप महाद्वीप में अपने अधिकार क्षेत्र को स्थापित नहीं कर सका। एक राजा के तौर पर उसके खाते में अनेक उपलब्धियों का श्रेय जाता है। उसने एक दक्ष लोक प्रशासन की स्थापना की। उसने भूमि के माप के आधार पर राजस्व संग्रह की एक प्रणाली स्थापित की। उसके राज्य में आम आदमी को न्याय मिला। अनेक लोक कार्य उसके अल्प अवधि के शासन कार्य में कराए गए जैसे कि पेड़ लगाना, यात्रियों के लिए कुएं और सरायों का निर्माण कराया गया, सड़कें बनाई गई, उसी के शासन काल में दिल्ली से काबुल तक ग्रांड ट्रंक रोड बनाई गई। मुद्रा को बदल कर छोटी रकम के चांदी के सिक्के बनवाए गए, जिन्हें दाम कहते थे। यद्यपि शेर शाह तख्त पर बैठने के बाद अधिक समय जीवित नहीं रहा और 5 वर्ष के शासन काल बाद 1545 में उसकी मौत हो गई।
अकबर (1556-1605):
हुमायूं के उत्तराधिकारी, अकबर का जन्म निर्वासन के दौरान हुआ था और वह केवल 13 वर्ष का था जब उसके पिता की मौत हो गई। अकबर को इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है। वह एक मात्र ऐसा शासक था जिसमें मुगल साम्राज्य की नींव का संपुष्ट बनाया। लगातार विजय पाने के बाद उसने भारत के अधिकांश भाग को अपने अधीन कर लिया। जो हिस्से उसके शासन में शामिल नहीं थे उन्हें सहायक भाग घोषित किया गया। उसने राजपूतों के प्रति भी उदारवादी नीति अपनाई और इस प्रकार उनसे खतरे को कम किया। अकबर न केवल एक महान विजेता था बल्कि वह एक सक्षम संगठनकर्ता एवं एक महान प्रशासक भी था। उसने ऐसा संस्थानों की स्थापना की जो एक प्रशासनिक प्रणाली की नींव सिद्ध हुए, जिन्हें ब्रिटिश कालीन भारत में भी प्रचालित किया गया था। अकबर के शासन काल में गैर मुस्लिमों के प्रति उसकी उदारवादी नीतियों, उसके धार्मिक नवाचार, भूमि राजस्व प्रणाली और उसकी प्रसिद्ध मनसबदारी प्रथा के कारण उसकी स्थिति भिन्न है। अकबर की मनसबदारी प्रथा मुगल सैन्य संगठन और नागरिक प्रशासन का आधार बनी।
अकबर की मृत्यु उसके तख्त पर आरोहण के लगभग 50 साल बाद 1605 में हुई और उसे सिकंदरा में आगरा के बाहर दफनाया गया। तब उसके बेटे जहांगीर ने तख्त को संभाला।
जहांगीर:
अकबर के स्थान पर उसके बेटे सलीम ने तख्तोताज़ को संभाला, जिसने जहांगीर की उपाधि पाई, जिसका अर्थ होता है दुनिया का विजेता। उसने मेहर उन निसा से निकाह किया, जिसे उसने नूरजहां (दुनिया की रोशनी) का खिताब दिया। वह उसे बेताहाशा प्रेम करता था और उसने प्रशासन की पूरी बागडोर नूरजहां को सौंप दी। उसने कांगड़ा और किश्वर के अतिरिक्त अपने राज्य का विस्तार किया तथा मुगल साम्राज्य में बंगाल को भी शामिल कर दिया। जहांगीर के अंदर अपने पिता अकबर जैसी राजनैतिक उद्यमशीलता की कमी थी। किन्तु वह एक ईमानदार और सहनशील शासक था। उसने समाज में सुधार करने का प्रयास किया और वह हिन्दुओं, ईसाइयों तथा ज्यूस के प्रति उदार था। जबकि सिक्खों के साथ उसके संबंध तनावपूर्ण थे और दस सिक्ख गुरूओं में से पांचवें गुरू अर्जुन देव को जहांगीर के आदेश पर मौत के घाट उतार दिया गया था, जिन पर जहांगीर के बगावती बेटे खुसरू की सहायता करने का अरोप था। जहांगीर के शासन काल में कला, साहित्य और वास्तुकला फली फूली और श्री नगर में बनाया गया मुगल गार्डन उसकी कलात्मक अभिरुचि का एक स्थायी प्रमाण है। उसकी मृत्यु 1627 में हुई।
शाहजहां:
जहांगीर के बाद उसके द्वितीय पुत्र खुर्रम ने 1628 में तख्त संभाला। खुर्रम ने शाहजहां का नाम ग्रह किया जिसका अर्थ होता है दुनिया का राजा। उसने उत्तर दिशा में कंधार तक अपना राज्य विस्तारित किया और दक्षिण भारत का अधिकांश हिस्सा जीत लिया। मुगल शासन शाहजहां के कार्यकाल में अपने सर्वोच्च बिन्दु पर था। ऐसा अतुलनीय समृद्धि और शांति के लगभग 100 वर्षों तक हुआ। इसके परिणाम स्वरूप इस अवधि में दुनिया को मुगल शासन की कलाओं और संस्कृति के अनोखे विकास को देखने का अवसर मिला। शाहजहां को वास्तुकार राजा कहा जाता है। लाल किला और जामा मस्जिद, दिल्ली में स्थित ये दोनों इमारतें सिविल अभियांत्रिकी तथा कला की उपलब्धि के रूप में खड़ी हैं। इन सब के अलावा शाहजहां को आज ताज महल, के लिए याद किया
सिक्ख शक्ति का उदय
सिक्ख धर्म की स्थापना सोलहवीं शताब्दी के आरंभ में गुरूनानक देव द्वारा की गई थी। गुरू नानक का जन्म 15 अप्रैल 1469 को पश्चिमी पंजाब के एक गांव तलवंडी में हुआ था। एक बालक के रूप में उन्हें दुनियावी चीज़ों में कोई दिलचस्पी नहीं थी। तेरह वर्ष की उम्र में उन्हें ज्ञान प्राप्ति हुई। इसके बाद उन्होंने देश के लगभग सभी भागों में यात्रा की और मक्का तथा बगदाद भी गए और अपना संदेश सभी को दिया। उनकी मृत्यु पर उन्हें 9 अन्य गुरूओं ने अपनाया।
गुरू अंगद देव जी (1504-1552) तेरह वर्ष (1539-1552) के लिए गुरू रहे। उन्होंने गुरूमुखी की नई लिपि का सृजन किया और सिक्खों को एक लिखित भाषा प्रदान की। उनकी मृत्यु के बाद गुरू अमरदास जी (1479-1574) ने उनका उत्तराधिकार लिया। उन्होंने अत्यंत समर्पण दर्शाया और सिक्ख धर्म के अविभाज्य भाग्य के रूप में लंगर किया। गुरू रामदास जी ने चौथे गुरू का पद संभाला, उन्होंने श्लोक बनाए, जिन्हें आगे चलकर पवित्र लेखनों में शामिल किया गया। गुरू अर्जन देव जी सिक्ख धर्म के पांचवें गुरू बने। उन्होंने विश्व प्रसिद्ध हरमंदिर साहिब का निर्माण कराया जो अमृतसर में स्थित स्वर्ण मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने पवित्र ग्रंथ साहिब का संकलन किया, जो सिक्ख धर्म की एक पवित्र धार्मिक पुस्तक है। गुरू अर्जन देव ने 1606 में शरीर छोड़ा और उनके बाद श्री हर गोविंद आए, जिन्होंने स्थायी सेना बनाए रखी और सांकेतिक रूप से वे दो तलवारें धारण करते थे, जो आध्यात्मिकता और मानसिक शक्ति की प्रतीक है।
गुरू श्री हर राय सांतवें गुरू थे जिनका जन्म 1630 में हुआ और उन्होंने अपना अधिकांश जीवन ध्यान और गुरू नानक की बताई गई बातों के प्रचार में लगाया। उनकी मृत्यु 1661 में हुई और उनके बाद उनके द्वितीय पुत्र हर किशन ने गुरू का पद संभाला। गुरू श्री हर किशन जी को 1661 में ज्ञान प्राप्ति हुई। उन्होंने अपना जीवन दिल्ली के माहमारी से पीडित लोगों की सेवा और सुश्रुसा में लगाया। जिस स्थान पर उन्होंने अपने जीवन की अंतिम सांस ली उसे दिल्ली में गुरूद्वारा बंगला साहिब कहा जाता है। श्री गुरू तेग बहादुर 1664 में गुरू बने। जब कश्मीर के मुगल राज्यपाल ने हिन्दुओं को बल पूर्वक धर्म परिवर्तन कराने के लिए दबाव डाला तब गुरू तेग बहादुर ने इसके प्रति संघर्ष करने का निर्णय लिया। गुरूद्वारा सीसगंज, दिल्ली उसी स्थान पर है जहां गुरू साहिब ने अंतिम सांसें ली और गुरू द्वारा रकाबगंज में उनका अंतिम संस्कार किया गया। दसवें गुरू, गुरू गोविंद सिंह का जन्म 1666 में हुआ और वे अपने पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के बाद गुरू बने। गुरू गोविंद सिंह ने अपनी मृत्यु के समय गुरू ग्रंथ साहिब को सिक्ख धर्म का उच्चतम प्रमुख कहा और इस प्रकार एक धार्मिक गुरू को मनोनीत करने की लंबी परम्परा का अंत हुआ।
छत्रपति शिवाजी महाराज
छत्रपति शिवाजी महाराज (1630-1680) महाराष्ट्र के महानायक थे, जिन्होंने मुगलों के सामने सबसे पहले गंभीर चुनौती रखी और अंतत: उनके भारत के साम्राज्य को प्रभावित किया।
वे अजेय योद्धा और एक प्रशंसा करने योग्य सेनानायक थे। उन्होंने एक मजबूत सेना और नौ सेना तैयार की। उन्होंने 18 साल की अल्पावस्था में यह संघर्ष करने की भावना सबसे पहले प्रदर्शित की, जब उन्होंने महाराष्ट्र के अनेक किलों पर फतह प्राप्त की। उन्होंने अनेक किलों का निर्माण और सुधार भी कराया तथा जासूसी की एक उच्च दक्ष प्रणाली का रखरखाव किया। गुरिल्ला युद्ध का उपयोग उनकी युद्ध तकनीकी की एक अनोखी और प्रमुख विशेषता थी।
यह शिवाजी की बुद्धिमानी थी कि उन्होंने बिखरे हुए लोगों को संगठित किया और एक राष्ट्र के निर्माण हेतु उनके बीच मेल कराया, जो उनकी शक्ति और सफलता के नेतृत्व से संभव हुआ। शिवाजी नागरिकों, आम जनता की ओर मुड़े और उन्हें एक उत्कृष्ट संघर्ष साधन के रूप में परिवर्तित किया और जिसे दक्षिण के सुल्तानों और मुगलों के खिलाफ उन्होंने प्रभावी रूप से उपयोग किया।
शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित राज्य 'हिंदवी स्वराज' के नाम से जाना जाता है, जो समय के दौरान आगे बढ़ा और भारत के शक्तिशाली राज्य के रूप में विकसित हुआ। शिवाजी महाराज की मृत्यु 1680 में 50 वर्ष की आयु में रायगढ़ नामक स्थान पर हुई। उनकी समय से पहले मृत्यु के कारण महाराष्ट्र के इतिहास में एक गंभीर कमी पैदा हुई।
शिवाजी अपने सिद्धांतों में एक असाधारण व्यक्ति थे और उन्होंने एक स्वतंत्र राज्य से अपना जीवन तराशा, शक्तिशाली मुगल साम्राज्य को चुनौती दी और अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़ी जो भावी पीढियों के लिए सदैव प्रेरणा का स्रोत सिद्ध हुई।
मुगल शासन काल का पतन
मुगल शासन काल का विघटन 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद आरंभ हो गया था। उनके पुत्र और उत्तराधिकारी, बहादुर शाह जफर पहले ही बूढ़े हो गए थे, जब वे सिहांसन पर बैठे और उन्हें एक के बार एक बगावतों का सामना करना पड़ा। उस समय साम्राज्य के सामने मराठों और ब्रिटिश की ओर से चुनौतियां मिल रही थी। करो में स्फीति और धार्मिक असहनशीलता के कारण मुगल शासन की पकड़ कमजोर हो गई थी। मुगल साम्राज्य अनेक स्वतंत्र या अर्ध स्वतंत्र राज्यों में टूट गया। इरान के नादिरशाह ने 1739 में दिल्ली पर आक्रमण किया और मुगलों की शक्ति की टूटन को जाहिर कर दिया। यह साम्राज्य तेजी से इस सीमा तक टूट गया कि अब यह केवल दिल्ली के आस पास का एक छोटा सा जिला रह गया। फिर भी उन्होंने 1850 तक भारत के कम से कम कुछ हिस्सों में अपना राज्य बनाए रखा, जबकि उन्हें पहले के दिनों के समान प्रतिष्ठा और प्राधिकार फिर कभी नहीं मिला। राजशाही साम्राज्य बहादुर शाह द्वितीय के बाद समाप्त हो गया, जो सिपाहियों की बगावत में सहायता देने के संदेह पर ब्रिटिश राज द्वारा रंगून निर्वासित कर दिए गए थे। वहां 1862 में उनकी मृत्यु हो गई।
इससे भारतीय इतिहास का मध्य कालीन
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