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अंतर्राष्ट्रीय संबंध ईरानी इस्लामिक क्रांति के चार दशक

1 से 11 फरवरी तक ईरान में इस्लामी क्रांति की 40वीं सालगिरह मनाई गई। फरवरी 1979 में धार्मिक नेता अयातुल्लाह रूहोल्लाह खोमैनी (Ayatollah Ruhollah Khomeini) देश वापस लौटे थे और उन्होंने उस क्रांति का नेतृत्व किया जिसने तत्कालीन शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को सत्ता से बेदखल कर दिया था। 11 फरवरी 1979 को ही ईरान से अमेरिकी समर्थक पहलवी राजवंश के शासन की समाप्ति हुई और इस्लामी क्रांति के जनक अयातुल्ला रुहोल्लाह खोमैनी को ईरान का सर्वोच्च नेता चुना गया।

प्राचीन काल का ईरान


आज का ईरान प्राचीन काल के ईरान से बिल्कुल अलग है। ईरान को तब पर्शिया या फारस के नाम से जाना जाता था। उससे पहले यह आर्याना कहलाता था। तब फारस देश में आर्यों की एक शाखा का निवास था। माना जाता है कि वैदिक काल में फारस से लेकर वर्तमान भारत के काफी बड़े हिस्से तक सारी भूमि आर्यभूमि कहलाती थी, जो अनेक प्रदेशों में विभक्त थी। जिस प्रकार भारतवर्ष में पंजाब के आसपास के क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था, उसी प्रकार फारस में भी आधुनिक अफगानिस्तान से लगा हुआ पूर्वी प्रदेश अरियान व एर्यान कहलाता था, जिससे बाद में ईरान नाम मिला।


इस्लामिक क्रांति से पहले का ईरान


इस्लामिक क्रांति से पहले ईरान में पश्चिम का जबरदस्त प्रभाव था। वहाँ न तो पहनावे और रहन-सहन को लेकर कोई पाबंदी थी और न ही धार्मिक पाबंदियाँ।
उस समय ईरान को इस्लामी देशों के बीच सबसे अधिक आधुनिक माना जाता था और ईरान का का माहौल पेरिस या लंदन जैसे शहरों से किसी मायने में कम नहीं था।
1953 में अमेरिका और ब्रिटिश खुफिया एजेंसियों ने तख्तापलट कर लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिक को हटा दिया। वह ईरान के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे।
क्यों हुई थी ईरान की क्रांति?

ईरान की क्रांति का सबसे बड़ा कारण था अमेरिकी समर्थक शाह के शासन का क्रूर, भ्रष्ट और पश्चिमी सभ्यता का समर्थक होना। इस्लामिक मूल्यों के हनन से जनता के मन में शासन के प्रति रोष था, जिसकी परिणति इस्लामिक क्रांति के रूप में हुई। ईरान की इस्लामिक क्रांति इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा और आज जो दुनिया का राजनैतिक और कूटनीतिक परिदृश्य है उस पर कहीं-न-कहीं ईरान की इस्लामिक क्रांति का प्रभाव है। 1980 में ईरान-इराक के बीच छिड़े युद्ध के कारणों में ईरान की क्रांति भी एक प्रमुख कारण रही। इसलिये ईरान की इस्लामिक क्रांति इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।

ईरानी इस्लामी गणराज्य की स्थापना (कालक्रम)


अयातुल्लाह खोमैनी ईरानी इस्लामी गणराज्य के संस्थापक और 1979 की ईरानी क्रांति के अग्रणी नेता थे तथा मोहम्मद रज़ा पहलवी ईरान के आखिरी शाह थे।
अयातुल्लाह खोमैनी ईरान की तत्कालीन शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी की सरकार को गैर-इस्लामी मानते थे। 1962 में उन्होंने शाह की सरकार के खिलाफ जेहाद छेड़ दिया, जिससे वहाँ की सरकार के खिलाफ बगावत हो गई जो ईरान के इतिहास में एक बड़ी राजनीतिक घटना थी।
अयातुल्लाह खोमैनी ने शाह के राजनीतिक आंदोलन को व्हाइट रिवोल्य़ूशन नाम दिया और इसे गैर-इस्लामी बताते हुए इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया।
इस व्हाइट रिवोल्य़ूशन के तहत ऐसे आर्थिक और सामाजिक सुधार किये गए जो ईरान के परंपरागत समाज को पश्चिमी मूल्यों की तरफ ले जाते थे।
शाह के इन सुधारों का विरोध करने की वज़ह से उन्हें 1964 में देश छोड़ना पड़ा और 1979 तक वे देश के बाहर इराक और फ्रांस में रहे।
सितंबर 1978 में ईरान में शाह पहलवी के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए और धीरे-धीरे मौलवियों के समूह ने प्रदर्शनों का नेतृत्व संभाल लिया। इन्हें फ्रांस में रह रहे अयातुल्लाह खोमैनी से निर्देश मिल रहे थे।
जनवरी 1979 तक पूरे ईरान में हालात गृहयुद्ध जैसे हो गए थे और प्रदर्शनकारी निर्वासन में रह रहे अयातुल्लाह खोमैनी की वापसी की मांग कर रहे थे।
जब हालात बेकाबू हो गए तो शाह को परिवार सहित ईरान से पलायन करना पड़ा।
अप्रैल 1979 में जनमत संग्रह के बाद इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान का एलान किया गया और नई सरकार चुनी गई।
क्रांति के बाद अयातुल्लाह खोमैनी देश के सर्वोच्च नेता बन गए और मृत्युपर्यंत इस पद पर बने रहे। अयातुल्लाह खोमैनी इस्लामी कानून के विशेषज्ञ और 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक थे। ईरान के शाह के विरोध के लिये उन्होंने 15 साल से अधिक समय निर्वासन में बिताया। अपने लेखन और उपदेशों में उन्होंने इस्लामिक न्यायविदों द्वारा ईश्वरीय राजनीतिक नियम को शामिल करने के लिये इस्लामी न्याय विज्ञान के संरक्षण विलायत-ए-फकीह (Velayat-e Fakih) के सिद्धांत का विस्तार किया।

उन्हें 1979 में अमेरिकी समाचार पत्रिका टाइम ने अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव के लिये उन्हें मैन ऑफ द ईयर नामित किया था।
अयातुल्ला खोमैनी ने ग्रैंड अयातुल्लाह का पद धारण किया और इसे आधिकारिक रूप से ईरान में उनके समर्थकों द्वारा इमाम खोमैनी के रूप में जाना जाता है।
वह इस्लामिक देशों की दुनिया के एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने एक साथ राजनीतिक और धार्मिक नेतृत्व किया। 4 जून 1989 को अयातुल्ला खोमैनी निधन हो गया।
अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने अयातुल्लाह अली खुमैनी (Ayatollah Ali Khamenei) को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था, जो आज तक ईरान में इस सर्वोच्च धार्मिक पद पर बने हुए हैं।
तेहरान का अमेरिकी दूतावास बंधक प्रकरण

1970-80 के दशक में अमेरिका और ईरान के संबंध बेहद खराब दौर में पहुँच गए थे। खोमैनी समर्थक ईरानी छात्रों के एक ग्रुप ने अमेरिका के खिलाफ काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने 4 नवंबर, 1979 को तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर कब्ज़ा कर लिया और 444 दिनों के बाद 21 जनवरी 1981 को दूतावास में कैद 52 अमेरिकी बंधकों को रिहा किया था। क्रांतिकारियों की मांग थी कि अमेरिका ईरान के घरेलू मामलों में दखल देना बंद करे और शाह को देश में वापस भेजकर उस पर मुकदमा चलाने दिया जाए।

ऑपरेशन ईगल क्लॉ

इस बंधक प्रकरण का सबसे दिलचस्प पहलू यह था इस बंधक प्रकरण का सबसे दिलचस्प पहलू यह था कि शक्तिशाली होने के बावजूद अमेरिका सैन्य ताकत के बल पर अपने लोगों को मुक्त नहीं करा पाया था और उसे अंतत: बातचीत का रास्ता ही चुनना पड़ा था। वैसे अमेरिका ने अपने बंधकों को मुक्त कराने के लिये ऑपरेशन ईगल क्लॉ (Operation Eagle Claw) चलाया था। इसके तहत एक स्पेशल कंमाडो फोर्स का गठन कर अपने बंधक नागरिकों को तेहरान से निकालने का प्लान बनाया गया, लेकिन कई अवरोधों के चलते यह अभियान सिरे नहीं चढ़ पाया।

इसके बाद अमेरिका ने UN की मदद से पहली बार ईरान पर प्रतिबंध लगाए थे और ईरानी सामान का अमेरिका में आयात बंद कर दिया था। 1980 में जब ईरान-इराक युद्ध शुरू हुआ तो अमेरिका ने इराक का साथ देते हुए ईरान को भारी क्षति पहुँचाई। ईरान ने भी UN से मदद माँगी।

इसके बाद अल्जीरिया के राजनयिकों ने ईरान और अमेरिका के बीच मध्यस्थता की तथा जनवरी 1981 में दोनों के बीच समझौता करा दिया गया। इस समझौते के मुताबिक, अमेरिका को ईरान पर लगाए गए तमाम प्रतिबंध वापस लेने थे और उसकी ज़ब्त की गई धनराशि भी लौटानी थी। बदले में ईरान को अमेरिका के सभी बंधकों को छोड़ना था। इस समझौते के बाद 20 जनवरी, 1981 को ईरान ने सभी अमेरिकी बंधकों को रिहा कर दिया।

बंधक प्रकरण पर बन चुकी है फिल्म भी

ईरान में हुई इस घटना पर 2012 में हॉलीवुड में आर्गो (Argo) नाम की फिल्म भी बनाई जा चुकी है। इस फिल्म को 85वें अकादमी (Oscar) अवॉर्ड में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवॉर्ड मिला था। इसके अलावा इस फिल्म को बाफ्टा तथा गोल्डन ग्लोब में भी सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस फिल्म के डायरेक्टर थे बेन अफलेक और वही इसके लीडिंग हीरो भी थे।

ईरान पर प्रतिबंधों का इतिहास

बेशक ईरान 40वीं इस्लामिक क्रांति का उत्सव मना रहा है, लेकिन घरेलू कठिनाइयों और अमेरिकी पाबंदियों की वज़ह से कठिन आर्थिक चुनौतियों का सामना भी कर रहा है। ऐसा नहीं है कि अमेरिका ने ईरान पर पहली बार प्रतिबंध लगाए हैं। ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का एक लंबा इतिहास रहा है।

मार्च 1995 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अमेरिकी कंपनियों को ईरान के तेल, व्यापार और गैस में निवेश करने से रोक दिया था।
अप्रैल 1996 में कांग्रेस ने एक कानून पास कर विदेशी कंपनियों के ईरान के एनर्जी सेक्टर में 20 मिलियन डॉलर से ज़्यादा के निवेश पर बैन लगा दिया।
जब जॉर्ज बुश अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने ईरान, इराक और उत्तर कोरिया को ऐक्सिस ऑफ ईविल घोषित कर दिया, जिसका ईरान में काफी विरोध हुआ।
2002 में पता चला कि ईरान परमाणु सुविधाओं का विकास कर रहा है जिसमें एक यूरेनियम प्लांट और एक हेवी वॉटर रियेक्टर शामिल थे। अमेरिका ने ईरान पर चोरी-छिपे परमाणु हथियार बनाने का आरोप लगाया।
ईरान UN के सामने अपना पक्ष रखता रहा। 2006 से 2010 के बीच UN ने परमाणु मुद्दे को लेकर ईरान पर चार बार प्रतिबंध लगाए।
अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने भी ईरान पर कई प्रतिबंध लगाए और 2012 में वित्तीय क्षेत्र को भी इसके दायरे में ले लिया। इसमें कई और देश भी शामिल हुए।
2007 में सुरक्षा परिषद ने ईरान से हथियारों के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया। साथ ही ईरान के बैंकों और ईरान के कार्गो विमानों पर निगरानी रखी जाने लगी।
ईरान और P5+1 के बीच हुआ परमाणु समझौता

2015 में चीन, फ्रांस, जर्मनी, रूस, अमेरिका, यूरोपियन यूनियन और UK ने ईरान के साथ Joint Comprehensive Plan of Action (JCPOA) पर हस्ताक्षर किये। इसके तहत ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम में बदलाव करने पर सहमति जताई और आश्वासन दिया कि वह इस पर अमल करेगा। इसके बदले संयुक्त राष्ट्र, EU और अमेरिका उसके खिलाफ लगे प्रतिबंध हटाने थे।
लेकिन 2016 में अमेरिका के राष्ट्रपति बने डोनाल्ड ट्रंप शुरुआत से ही ईरान पर प्रतिबंध जारी रहने के पक्षधर थे। मई 2018 में उन्होंने JCPOA से बाहर निकलने का एलान कर दिया।
इसके बाद अमेरिका ने एक बार फिर ईरान पर कई प्रतिबंध लगा दिये हैं, लेकिन इस बार उसके सहयोगी देशों ने उसका साथ नहीं दिया।
अमेरिका और ईरान के बीच कटुता का नया दौर

ईरान द्वारा बैलेस्टिक मिसाइल कार्यक्रम पर आगे बढ़ने के बाद अमेरिका ने पिछले वर्ष अक्तूबर में उस पर नए प्रतिबंध लगा दिए और परमाणु समझौते से हटने का एलान किया। इसके चलते अमेरिका और ईरान के बीच कटुता का नया अध्याय फिर से शुरू हो गया है।
इसके अलावा ईरान एकमात्र ऐसा देश है जहाँ शिया राष्ट्रीय धर्म है। इसी धार्मिक मतभेद के कारण सऊदी अरब और ईरान के बीच वैचारिक टकराव अपने चरम पर है। सऊदी अरब को अमेरिका समर्थक देश माना जाता है।
कमज़ोर नहीं है ईरान

इस सब के बावजूद ईरान ने 1979 की इस्लामिक क्रांति की 40वीं सालगिरह के मौके पर 1350 किलोमीटर से भी ज्यादा दूरी तक मार करने वाली नई क्रूज़ मिसाइल का सफल परीक्षण किया, जिसका सरकारी टीवी चैनल ने सीधा प्रसारण किया।इससे पहले पिछले वर्ष आतंकवाद का मुकाबला करने पर तेहरान में हुए छह देशों के सम्मेलन में ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने चेतावनी थी दी कि यदि अमेरिकी प्रतिबंधों से वह कमजोर हुआ, तो पश्चिमी देशों को बड़े पैमाने पर मादक पदार्थों की तस्करी का सामना करना पड़ेगा। कमज़ोर ईरान मादक पदार्थों की तस्करी का पूरी ताकत से मुकाबला नहीं कर पाएगा और प्रतिबंधों से ईरान के कमजोर पड़ जाने से कई देश सुरक्षित नहीं रह पाएंगे। इस सम्मेलन में अफगानिस्तान, ईरान, पाकिस्तान, तुर्की, चीन और रूस की संसद के स्पीकर शामिल हुए थे। वैसे भी ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी अमेरिकी प्रतिबंधों को आर्थिक आतंकवाद की संज्ञा देते हैं

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