लघु चित्रकारी की तकनीक मध्यकाल में चित्रकलाओं का स्वरूप लघु चित्रकारी ही था जिसको परंपरागत तकनीक से बनाया जाता था। पहले खाके को लाल या काले रंग से स्वतंत्र रूप से बनाया जाता था, फिर उस पर सफेद रंग लगाकर बार-बार चमकाया जाता था ताकि बहिर्रेखा स्पष्ट रूप से दिखाई पड़े। फिर नई कूची की सहायता से दूसरी बहिर्रेखा खींची जाती थी और पहले वाले खाके को बिल्कुल स्पष्ट और दृष्टिगोचर कर दिया जाता था। चित्रकलाओं में प्रयुक्त रंग खनिजों और गेरूए से लिये गए थे। ‘पेओरि’ गायों के मूत्र से निकाला गया पीला रंग था। बबूल गोंद और नीम गोंद का प्रयोग बंधनकारी माध्यम (चिपकाने) में होता था। पशु के बाल से कूची बनाई जाती थी जिसमें गिलहरी के बाल से बनी कूची सर्वश्रेष्ठ होती थी। चित्रकला सामग्री के रूप में ताड़ के पत्ते, कागज, काष्ठ और वस्त्र का प्रयोग होता था। चित्रकला के पश्चिमी वर्णों और तकनीक के प्रभाव के कारण भारतीय चित्रकला की परंपरागत शैलियाँ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंतत: समाप्त हो गई थीं। आधुनिक काल में चित्रकला भारत की सत्ता की चाबी अंग्रेज़ों के हाथों में जाने के बाद पहले से ही क