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जीव विज्ञान और पर्यावरण विश्व जल दिवस (22 मार्च) पर विशेष; जल संकट से जूझ रहे भारत में जल प्रबंधन नीति का अभाव

 प्रत्येक वर्ष 22 मार्च को वैश्विक विश्व जल दिवस है। यह मीठे पानी के महत्व पर ध्यान केंद्रित करने और मीठे पानी के संसाधनों के स्थायी प्रबंधन की वकालत करने का एक माध्यम है। 2019 में थीम है
                                        'किसी को पीछे छोड़ना'।



 हमारे देश में भूजल स्तर गिर रहा है और हम दुनिया के उन देशों की सूची में सबसे ऊपर हैं, जो भूजल का सबसे ज़्यादा दोहन करते हैं। 22 मार्च को विश्व जल दिवस के मौके पर ब्रिटेन के एक अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन (NGO) 'वॉटर एड' ने अपनी नवीनतम रिपोर्ट में दावा किया है कि कि भारत में एक अरब की आबादी पानी की कमी वाले स्थानों में रह रही है और इनमें से 60 करोड़ लोग अत्यधिक कमी वाले इलाके में रहते हैं।

बिनीथ द सर्फेस (Beneath The Surface) शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जल स्रोतों की बढ़ती मांग के चलते भूजल के अत्यधिक दोहन, पर्यावरण और जनसंख्या में बदलाव के चलते ऐसा हुआ है। वैश्विक भूजल की कमी वर्ष 2000 से 2010 के बीच बढ़कर करीब 22% हो गई है, लेकिन इसी अवधि में भारत में भूजल की कमी 23% हो गई। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत सबसे अधिक भूमिगत जल का उपयोग करता है। विश्व के कुल भूजल का 24% हिस्सा भारत इस्तेमाल करता है।

                                     UNICEF सर्वे और WHO के आँकड़े

UNICEF के अनुसार भारत में राजधानी दिल्ली और बेंगलुरु जैसे महानगर जिस तरह जल संकट का सामना कर रहे हैं, उसे देखते हुए यह अनुमान लगाया जा रहा है कि 2030 तक इन नगरों में भूजल का भंडार पूरी तरह से खत्म हो जाएगा।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के आँकड़ों के मुताबिक, पिछले सात दशकों में विश्व की आबादी दोगुनी से भी अधिक हो गई है और उसी के साथ पेयजल की उपलब्धता और लोगों तक इसकी पहुँच लगातार कम होती जा रही है। इसकी वज़ह से दुनियाभर में स्वच्छता की स्थिति भी प्रभावित हुई है। अशुद्ध पेयजल के उपयोग से डायरिया, हैज़ा, टाइफाइड और जलजनित बीमारियों का खतरा तेज़ी से बढ़ रहा है। दुनिया में लगभग 90% बीमारियों का कारण गंदा और दूषित पेयजल है।
            नीति आयोग का समग्र जल प्रबंधन सूचकांक




हाल ही में नीति आयोग के एक नवीनतम सर्वे के अनुसार भी भारत में 60 करोड़ लोग गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। अपर्याप्त और प्रदूषित जल के इस्तेमाल की वज़ह से भारत में हर साल दो लाख लोगों की मौत हो जाती है।
इससे पहले पिछले वर्ष जून में नीति आयोग ने जल के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए समग्र जल प्रबंधन सूचकांक (Composition Water Management Index -CWMI) पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। समग्र जल प्रबंधन सूचकांक जल संसाधनों के प्रभावी प्रबंधन में राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के प्रदर्शन के आकलन और उनमें सुधार लाने का एक प्रमुख साधन है। यह सूचकांक राज्यों और संबंधित केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों को उपयोगी सूचना उपलब्ध करा रहा है जिससे वे अच्छी रणनीति बना सकेंगे और जल संसाधनों के बेहतर प्रबंधन में उसे लागू कर सकेंगे। साथ ही एक वेब पोर्टल भी इसके लिये लॉन्च किया गया है। समग्र जल प्रबंधन सूचकांक में भूजल, जल निकायों की पुनर्स्थापना, सिंचाई, खेती के तरीके, पेयजल, नीति और प्रबंधन के विभिन्न पहलुओं के 28 विभिन्न संकेतकों के साथ 9 विस्तृत क्षेत्र शामिल हैं। समीक्षा के उद्देश्य से राज्यों को दो विशेष समूहों- ‘पूर्वोत्तर एवं हिमालयी राज्य’ और ‘अन्य राज्यों’ में बाँटा गया है।

रहिमन पानी राखिये...


रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून। पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।।...ये कुछ बेहद प्रचलित पंक्तियाँ हैं जो पानी के महत्त्व का वर्णन सरलतम रूप में करती हैं। लेकिन बात जब जल संकट की आती है तो सबसे अधिक हैरानी इस बात पर होती है कि जब पृथ्वी के समस्त भूभाग का दो-तिहाई से भी अधिक भाग जल से आच्छादित है तो फिर इस धरातल पर रहने वालों के लिये समय के साथ यह दुर्लभ क्यों होता जा रहा है। दरअसल, पृथ्वी के लगभग 71% भूभाग पर फैले जल का केवल 3% भाग पीने के लायक है। इस 3% ताज़े पेयजल का दो-तिहाई से भी अधिक भाग ग्लेशियरों में है। इसके बाद मात्र 1% पानी विश्व की लगभग आठ अरब आबादी के दैनिक उपयोग के लिये शेष बचता है। अब यदि 71% जल से घिरे भूभाग में केवल 1% पानी मानव की पहुँच में हो और प्रयोग के लिये उपलब्ध हो तो दुनिया में जल संकट की गंभीरता का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देशों- भारत और चीन की आबादी को यदि एक साथ मिला दें तो दुनिया की लगभग तीन अरब आबादी साल में कम-से-कम दो से तीन महीने गंभीर जल संकट का सामना करने के लिये विवश है
                         मानव निर्मित है जल संकट

इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि पृथ्वी पर रहने वालों के लिये वैश्विक तापन (Global Warming) के बाद जल संकट दूसरी सबसे बड़ी गंभीर चुनौती है। भारत में कुल वैश्विक आबादी का 18% निवास करता है, लेकिन इसे विश्व में उपलब्ध पेयजल का 4% ही मिल पाता है। यदि ध्यान से देखा जाए तो पता चलता है कि अन्य प्राकृतिक और मानवीय संकटों की तरह जल संकट भी मानव निर्मित है। इसके साथ उपलब्ध जल के दोषपूर्ण प्रबंधन के कारण जल संकट और गंभीर हो जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों से रोज़गार की तलाश में आबादी के शहरों की ओर पलायन ने शहरी क्षेत्रों में जल संकट को और बढ़ाया है। हमारे देश में कृषि क्षेत्र में समस्त उपलब्ध जल का 70% उपयोग होता है, लेकिन इसका केवल 10% ही सही तरीके से इस्तेमाल हो पाता है और शेष 60% बर्बाद हो जाता है। इसलिये हमें गहराई से जल प्रबंधन पर विचार करने की ज़रूरत है।

                       चीन में जल प्रबंधन के लिये 'रिवर चीफ' कार्यक्रम

चीन में जल प्रबंधन को लेकर एक कहावत प्रचलित है...पानी को नौ ड्रैगन संभालते हैं। अर्थात् जल संसाधनों को संभालने में जुटी एजेंसियों के दायित्व एवं जिम्मेदारियाँ एक-दूसरे से जुड़ी हैं। ऐसा ही कुछ भारत में भी जल प्रबंधन को लेकर देखने को मिलता है। दोनों ही देशों में जल प्रबंधन केंद्र एवं राज्यों के स्तर पर मंत्रालयों और जल प्रबंधन एवं जल प्रदूषण से जुड़ी विभिन्न एजेंसियों में बंटा हुआ है।

ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन में जल प्रबंधन की जटिल एवं अस्पष्ट व्यवस्था होने के अलावा तीव्र विकास और पानी के अत्यधिक दोहन की वज़ह से चीन के सतही जल का एक-तिहाई हिस्सा पीने के लायक नहीं रह गया है। इस हालात का मुकाबला करने के लिये चीन ने पिछले साल एक गैर-परंपरागत लेकिन महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम रिवर चीफ्स (River Chiefs) शुरू किया।


                               ‘रिवर चीफ्स’ कार्यक्रम की कार्य पद्धति
इस कार्यक्रम में एक सरकारी अधिकारी को नदी का मुखिया (River Chief) नियुक्त किया जाता है जो अपने इलाके में मौजूद जलाशय या नदी के खास हिस्से में पानी की गुणवत्ता संकेतकों का प्रबंधन करता है। उनका प्रदर्शन और भावी करियर इस बात पर निर्भर करता है कि वे अपने कार्यकाल में जल गुणवत्ता संकेतकों को सुधारने में कितने सफल हुए। चीन में नदियों एवं जलाशयों की गुणवत्ता पर नज़र रखने के लिये 4 लाख से अधिक रिवर चीफ नियुक्त किये गए। इनके अलावा ग्रामीण स्तर पर 7.6 लाख और लोगों को नदियों की देखरेख का ज़िम्मा दिया गया। इस तरह पूरे चीन में नदियों के पानी की हालत सुधारने के काम में 10 लाख से अधिक लोग लगाए गए। चीन में ‘रिवर चीफ’ कार्यक्रम का हिस्सा बनने का मतलब है कि स्थानीय अधिकारियों को अपने-अपने क्षेत्र में दिखाए गए पर्यावरणीय प्रदर्शन के लिये आजीवन जवाबदेही का सामना करना पड़ेगा। नदी के जिस हिस्से के लिये उस अधिकारी को नियुक्त किया गया है वहाँ पर उसके नाम के साथ संपर्क ब्योरा भी अंकित होता है। अगर स्थानीय लोग किसी व्यक्ति या कंपनी को उस नदी खंड में कूड़ा-करकट डालते हुए देख लेते हैं या वहाँ पर काई आदि जम रही है तो वे उस अधिकारी को फोन पर इसकी जानकारी देते हैं। नदी के अहम एवं बड़े हिस्से का दायित्व अधिक वरिष्ठ अधिकारी को दिया गया है। इससे अधिकारी तमाम विभागों को एक साथ काम करने के लिये जोड़ सकता है। रिवर चीफ प्रणाली अपनाने से चीन के च्यांग्सु प्रांत में मनुष्यों के पीने लायक सतही जल का अनुपात 35% से बढ़कर 63% हो गया।
                                                     भारत में क्या है स्थिति?

हमारी समस्याएँ भी काफी हद तक चीन जैसी ही हैं, लेकिन क्या ऐसी कोई व्यवस्था भारत में कारगर हो पाएगी? हमारे देश में जल प्रदूषण की अधिकता के अलावा जल प्रबंधन से जुड़े कार्यों का जिम्मा कई संगठनों एवं सरकारी विभागों को सौंपा गया है। देश में जल प्रदूषण से निपटने के लिये पहले से कई कानून लागू हैं तथा केंद्र एवं राज्य दोनों स्तरों पर प्रदूषण मानकों के क्रियान्वयन के लिये प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बने हुए हैं। राज्यों के स्तर पर गठित प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पास तो जुर्माना लगाने की शक्ति पहले से ही है, लेकिन शीर्ष स्तर पर राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी योजना के क्रियान्वयन में राज्यों की भूमिका अहम होती है। किसी भी व्यक्ति को प्रदूषण मानकों का उल्लंघन करने पर तभी दंडित किया जा सकता है जब राज्य सरकार ऐसा करना चाहे, चाहे भारत में रिवर चीफ्स जैसे कार्यक्रम लागू हों या नहीं। वैसे जल को प्रदूषित करने वालों पर जुर्माना लगाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति सुनिश्चित करने का सबसे प्रभावी तरीका यही है कि स्थानीय समुदायों को इसका जिम्मा दिया जाए और उन्हें जल प्रबंधन का प्रभारी बना दिया जाए। लंबे समय से भारत की पर्यावरण नीति टॉप-डाउन मोड से संचालित होती रही है और उसके नतीजे सबके सामने हैं। इसकी जगह बॉटम-अप मोड अपनाने की ज़रूरत है जिसमें ज़रूरी सुधारों की पहल सर्वाधिक प्रभावित लोग ही करें।

                      नई राष्ट्रीय जल नीति की आवश्यकता




आज़ादी के बाद देश में तीन राष्ट्रीय जल नीतियाँ बनी हैं। पहली नीति 1987 में बनी, 2002 में दूसरी और 2012 में तीसरी जल नीति बनी। इसके अलावा कुछ राज्यों ने अपनी जल नीति बना ली है।
राष्ट्रीय जल नीति में जल को एक प्राकृतिक संसाधन मानते हुए इसे जीवन, जीविका, खाद्य सुरक्षा और निरंतर विकास का आधार माना गया है।
जल के उपयोग और आवंटन में समानता तथा सामाजिक न्याय का नियम अपनाए जाने की बात कही गई है।
भारत के बड़े हिस्से में पहले ही जल की कमी हो चुकी है। जनसंख्या वृद्धि, शहरीकरण और जीवन-शैली में बदलाव के चलते पानी की मांग तेजी से बढ़ने के कारण जल सुरक्षा के क्षेत्र में गंभीर चुनौतियाँ खड़ी हो गई हैं।
जल स्रोतों में बढ़ता प्रदूषण पर्यावरण तथा स्वास्थ्य के लिये खतरनाक होने के साथ ही स्वच्छ पानी की उपलब्धता को भी प्रभावित कर रहा है।
राष्ट्रीय जल नीति में इस बात पर बल दिया गया है कि खाद्य सुरक्षा, जैविक तथा समान और स्थायी विकास के लिये राज्य सरकारों को सार्वजनिक धरोहर के सिद्धांत के अनुसार सामुदायिक संसाधन के रूप में जल का प्रबंधन करना चाहिये।
पानी के बारे में नीतियाँ, कानून बनाने तथा विनियमन करने का अधिकार राज्यों का है फिर भी सामान्य सिद्धातों का व्यापक राष्ट्रीय जल संबंधी ढाँचागत कानून तैयार करना समय की मांग है। इससे राज्यों में जल संचालन के लिये जरूरी कानून बनाने और स्थानीय जल स्थिति से निपटने के लिये निचले स्तर पर आवश्यक प्राधिकार सौंपे जा सकेंगे। तेज़ी से बदल रहे हालात के मद्देनज़र नई जल नीति बनाई जानी चाहिये। इसमें हर ज़रूरत के लिये पर्याप्त जल की उपलब्धता और जल प्रदूषित करने वालों के लिये कड़ी सज़ा का प्रावधान होना चाहिये।

                                   भारत में प्रभावी जल प्रबंधन की ज़रूरत

इज़राइल के मुकाबले भारत में जल की पर्याप्त उपलब्धता है, लेकिन वहां का जल प्रबंधन हमसे कहीं अधिक बेहतर है। इज़राइल में खेती, उद्योग, सिंचाई आदि कार्यों में पुनर्चक्रित (Recycled) पानी का इस्तेमाल होता है, इसीलिये वहाँ लोगों को पेयजल की कमी का सामना नहीं करना पड़ता। भारत में 80% आबादी की पानी की ज़रूरत भूजल से पूरी होती है और यह भूजल अधिकांशतः प्रदूषित होता है। ऐसे में बेहतर जल प्रबंधन से ही जल संकट से उबरा जा सकता है और जल संरक्षण भी किया जा सकता है।

भारत में पानी की बचत कम और बर्बादी अधिक होती है और इसकी वज़ह से होने वाले जल संकट का एक बड़ा कारण आबादी का बढ़ता दबाव, प्रकृति से छेड़छाड़ और कुप्रबंधन भी है। अनियमित मानसून इस जल संकट को और बढ़ा देता है। इस संकट ने जल संरक्षण के लिये कई राज्यों की सरकारों को परंपरागत तरीकों को अपनाने के लिये मज़बूर कर दिया है। देशभर में छोटे- छोटे बांधों के निर्माण और तालाब बनाने की पहल की गई है। इससे पेयजल और सिंचाई की समस्या पर कुछ हद तक काबू पाया जा सका है। लेकिन भारत में 30% से अधिक आबादी शहरों में रहती है। आवास और शहरी विकास मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि देश के लगभग 200 शहरों में जल और बेकार पड़े पानी के उचित प्रबंधन की ओर तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है। जल संसाधन मंत्रालय का भी यह मानना है कि पेयजल प्रबंधन की चुनौतियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। कृषि, नगर निकायों और पर्यावरणीय उपयोग के लिये मांग, गुणवत्तापूर्ण जल और आपूर्ति के बीच सीमित जल संसाधन का कुशल समन्वय समय की मांग है।

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